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नवम
स्वाध्याय : ज्ञान की कुंजी
वर्तमान युग के बदलते सन्दर्मों में धर्म और दर्शन को संदेह की दृष्टि से देखने की प्रादत पड़ गयी है। इतना परिवर्तन हुया है जीने के ढंग और चिन्तन की प्रक्रिया में कि प्राचीन मूल्य अर्थहीन प्रतीत होते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा है क्या ? कहीं यह हमारी जिज्ञासा, प्रतिभा और सजगता की कुठा तो नहीं है ? परिश्रम और लगन से पलायन तो नहीं है ? गहरायी से सोचना होगा। समाज के हर वर्ग को, व्यवस्था को इसमें सम्मिलित होना होगा। साथ ही खोजनी होंगी प्राचीन जीवन-मूल्यों को नयी व्याख्याएँ, नये सन्दर्भ । जीवन की कला स्वाध्याय पर भी यह मनन-चिन्तन आवश्यक है ।
आज के समाज का सबसे बड़ा मूल्य है, अत्यधिक व्यस्तता। प्राचीन सिद्धान्तों को अपनाने में यही सबसे बड़ी बाधा है। स्वाध्याय कब करें ? कहाँ करें ? जिजीविषा की दौड़ में समय ही कहाँ है ? समाज के हर वर्ग के व्यक्तियों का यही सवाल है। उन्होंने देखा है बड़े-बूढ़ों को मन्दिरों और स्थानकों में शास्त्र पढ़ते हुए । एकान्त में सामायिक करते हुए। अत: यह सब सुविधा कहां से आये ? इसलिए स्वाध्याय ही बन्द । उसकी उपयोगिता पर ही विराम ।
दूसरा जीवन मल्य है तर्क का। हर परिणाम को नाप-जोखकर उस दिशा में प्रवृत होने की वैज्ञानिकता का अनुगामी होने का। अच्छी बात है यह । किन्तु इसके परिणाम विपरीत भी हुए हैं । अाज के व्यस्त मानव ने देखा-जो धर्म करता है, स्वाध्याय करता हैं उसे मिला क्या, उसके जीवन में परिवर्तन कहाँ पाया? वह तो स्वाध्याय, धर्म के समय के अतिरिक्त मुझ से भी अधिक क्रोधी है, दुराग्रही है, जिज्ञासा से रहित है। इस समाज-दर्शन ने भी स्वाध्याय की सार्थकता को पीछे धकेल दिया। किन्तु क्या इससे स्वाध्याय का महत्त्व कम हो गया ? नहीं, उसे और गहरायी से जानने का मार्ग खुला है।
___ विश्वविद्यालयों की शिक्षण-व्यवस्था, राजनीति, दंगे-फसाद आदि ने इस सम्बन्ध में एक और परिणाम दिया । 8-10 वर्षों के निरन्तर अध्ययन और वैज्ञानिक
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