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________________ हिंसा : स्वरूप एवं प्रयोग पं० प्रशाधरजी ने हिंसा की व्याख्या और सरल शब्दों में की है। उनका कथन है - संकल्पपूर्वक व्यक्ति को हिंसात्मक कार्य नहीं करना चाहिए । उन सब कार्यों व साधनों को, जिनसे शरीर द्वारा हिमा, हिंसा की प्रेरणा व अनुमोदन सम्भव हो, यत्नपूर्वक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए। यदि वह गृहस्थजीवन में उन कार्यों को नहीं छोड़ सकता तो उसे प्रत्येक कार्य को करते समय सतर्क और सावधान रहना चाहिए। 13 देवता, अतिथि, मन्त्र, औषधि प्रादि के निमित्त तथा अन्धविश्वास और धर्म के नाम पर संकल्पपूर्वक प्राणियों का घात नहीं करना चाहिए | 14 क्योंकि प्रयत्नाचार पूर्वक की गई क्रिया में जीव मरे या न मरे हिमा हो ही जाती है । जब कि यत्नाचार से कार्य कर रहे व्यक्ति को प्राणिवध हो जाने पर भी हिंसक नहीं कहा जाता । 15 वस्तुतः हिंसा करने और हिंसा हो जाने में बहुत अन्तर है । fron यह संकल्प पूर्वक किया गया प्राणियों का घात हिंसा है, और उनकी रक्षा एवं बचाव करना श्रहिंसा 116 अहिंसा के प्रतिपादन में जैन- साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है । इसमें प्रधानतः प्राणीमात्र के कल्याण की भावना निहित है । अन्य धर्म व संस्कृतियाँ अहिंसा का घोष करती हुई भी हिंसात्मक कार्यों में अनेक बहानों से प्रवृत्त देखी जा सकती है । किन्तु जैन संस्कृति जो कहती है, वही व्यवहार में उतारने की कोशिश करती है । यही कारण है, जैनाचार्यों ने समय की गतिविधि को देखते हुए अनेक वैदिक अनुष्ठानों व हिंसात्मक कार्यों का विरोध किया है । यह विरोध जैन धर्म में सर्वभूतदया की भावना का ही प्रतिफल है । 53 अहिंसा को जैनधर्म में व्रत माना गया है। वस्तुतः हिंसात्मक कार्यों से विरत होने में कठिनता का अनुभव होने से ही अहिंमा को व्रत कह दिया गया है, अन्यथा करुणा, अहिंसा तो दैनिक कार्यों एवं सुखी जीवन का एक आवश्यक अंग है : वह मानव की स्वाभाविक पररणति हैं । उसे व्रत मानकर चलना उससे दूर होना है । अहिंसा तो भावों की शक्ति है । प्रात्मा की निर्मलता एवं अज्ञान का विनाश है । कोई भी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अचानक परिवर्तन लाकर अहिंसा को उत्पन्न नहीं कर सकता । अहिंसा का उत्पन्न होना तो प्रात्मा में परिवर्तन होने के साथ होता है । प्रात्मा के परिवर्तन का अर्थ है, उसे पहिचान लेना । यह पहिचान ही निजको जानना है, सारे विश्व को जानना है । जब व्यक्ति इस अवस्था पर पहुँच जाता है तो समस्त विश्व के जीवों के दुख का स्पन्दन उसकी प्रात्मा में होने लगता है । यह करुणामय स्पन्दन होते ही हिंसा स्वयं तिरोहित हो जाती है । उसे हटाने के लिए कोई अलग से योजना नहीं करनी पड़ती। प्रहिंसा उत्पन्न हो जाती है । हिंसा की निवृत्ति और अहिंसा के प्रसार के लिए जैन धर्म में गृहस्थों के अनेक व्रत नियमों को पालन करने का उपदेश दिया गया है । प्रत्येक कार्य को साव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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