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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
3. उद्योगजा हिंसा : आजीविका के लिए व्यापार, कृषि आदि में हिंसात्मक प्रवृत्ति
करना ।
4. आरम्भजा हिंसा : जीवन-निर्वाह के लिए भोजन प्रादि तैयार करने एवं दैनिक कार्यों में होने वाली हिंसा ।
इनमें से प्रथम हिंसा जैन दृष्टि सभी व्यक्तियों के लिए त्याज्य है । द्वितीय तथा तृतीय प्रकार की हिंसा गृहस्थ जीवन में व्यक्ति कर सकता है; किन्तु उसमें भी उसके विचारों में शुद्धता और अनासक्ति होना आवश्यक है । आरम्भजा हिंसा गृहस्थ और साधु दोनों के जीवन में होती है । हिंसा से भी बचने का यथासम्भव प्रयत्न किया जाता है, जिसका मूल उपाय आन्तरिक शुद्धि को उपलब्ध करना है; अतः सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो जैन आचार संहिता में हिंसा का सूक्ष्म रूप भी धर्म में स्वीकृत नहीं है । हिंसा चाहे विचारों की हो अथवा बाह्य रूप में शारीरिक, दोनों ही जैन प्रचार का धार्मिक नियम नहीं हो सकती । पूर्ण अहिंसक होना ही जैन आचार का अन्तिम लक्ष्य है । इस लक्ष्य की पूर्ति में सभी प्राणियों के प्रति करुणा, प्रेम, मैत्री, समानता, सहिष्णुता आदि का जो व्यवहार किया जाता है, वही हिंसा की सामाजिक उपलब्धि है । जैन आचार की इस तीव्र प्रहिंसक दृष्टि ने भारतीय समाज में शाकाहारी जीवन-पद्धति को सुरक्षित रखा है। धन एवं सैन्य बल की कमी होने पर भी भारतीय मनोबल और चारित्रिक दृढ़ता को अहिसा ने ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। वर्तमान युग में महात्मा गाँधी ने अहिंसा के जिस प्रयोग को विश्वव्यापी बनाया है वह जैन प्राचार में स्वीकृत हिंसा का व्यावहारिक रूप ही है । 33 इसके पूर्व भी जैन साहित्य में अनेक कथाएँ एवं जीवन चरित्र हिंसा की जीवन में साधना को स्पष्ट करते हैं । 34 अन्य व्रतों का महत्व :
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हिंसा की साधना के लिए ही जैन आचार में सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दान आदि व्रतों का विधान है। जैन ग्रन्थों में इनकी सूक्ष्मतर व्याख्याएँ भी प्राप्त हैं; किन्तु यदि गहराई में देखा जाए तो जैन प्राचार आध्यात्मिक उपलब्धियों का ही सामाजिक परिणाम है। वस्तुतः प्रहिंसा का अर्थ आत्मज्ञान है । समताभाव की उपलब्धि है । 35 जो व्यक्ति आत्मा और लोक के अन्य पदार्थों के स्वरूप का सही ज्ञान कर लेगा, उसकी वृत्ति इतनी सात्त्विक हो जाएगी कि उससे हिंसा हो न सकेगी; क्योंकि समानधर्मा जीवों को दुःख कौन पहुँचाना चाहेगा और किस लाभ लिए ? जब व्यक्ति अहिंसा को अपने हृदय में इतना उतारेगा तभी वह सामाजिक हो सकेगा । अहिंसा की इस धुरी पर ही जैन प्रचार के अन्य व्रत गतिमान हैं ।
चतुर्थ प्रकार की
जैन दृष्टि से इस
सत्य व्रत का अर्थ केवल झूठ बोलने से बचना नहीं है; इसका वास्तविक अर्थ है - संसार को उसके प्रसली रूप में देखना; और स्वयं को असली रूप में
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