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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
देता है । चाहे हम ज्ञान संग्रह करें अथवा धन व यश का, प्रत्येक के साथ सापेक्षता प्रावश्यक है । संविभाग की समझ जागृत होना ही महावीर के अनेकान्त को समझना है । यही हमारे चरित्र की कुजी है। अनेकान्त हमारे चिन्तन को निर्दोष करता है । निर्मल चिन्तन से निर्दोष भाषा का व्यवहार होता है। सापेक्ष भाषा व्यवहार में अहिंसा प्रकट करती है । अहिंसक वृत्ति से अनावश्यक संग्रह और किसी का शोषण नहीं हो सकता । जीवन अपरिग्रही हो जाता है । इस तरह आत्म शोधन की प्रक्रिया का मूलमन्त्र है-महावीर का स्याद्वाद। जैनाचार्य कहते हैं कि संसार के उस एक मात्र गुरु अनेकान्तवाद को मेरा नमस्कार है, जिसके बिना इस लोक का कोई व्यवहार सम्भव नहीं है । यथा
जेण विणा लोयस्सवि ववहारो सव्वहा न निव्वडइ । तस्स मुवणेवक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।।
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