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जैन संस्कृति का वैशिष्टय
प्रचारित हो गया । श्रतः इन कथाओं द्वारा मनोरंजन तो होता ही है, मनुष्य सांसारिक बन्धनों से विमुक्त हो मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा भी प्राप्त करता है । इन कथाओं में लोक-जीवन तो सचमुच साकार हो उठा है ।
जैन साहित्य सांस्कृतिक दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध है । जैनाचार्य देश के एक कौने से दूसरे कौने तक निरन्तर भ्रमण करते रहते थे । अतः जब वे साहित्य सृजन करते थे तो उनकी लेखनी में सारे देश का प्रतिबिम्ब उतर आता था। छोटी से छोटी बात बारीकी से चित्रण करना उनकी विशेषता थी । इस साहित्य में जो सांस्कृतिक सामग्री मिलती है वह इसलिए और महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है, क्योंकि वह जैनचार्थो द्वारा संकलित है अतः उसकी प्रामाणिकता में संदेह की गुंजाइश नहीं है । आधुनिक लोक भाषाओं व उनकी साहित्यक विधाओं के विकास को समझने के लिए तो जैन साहित्य का अध्ययन अपरिहार्य है
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साहित्य के अतिरिक्त जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार का दूसरा माध्यम कला है । कला जीवन की मौन अभिव्यक्ति है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में - ! जो कला के मूर्तिरूपों को प्रमूर्ति रूप की पृष्ठभूमि मे जानता है वही सच्चा जानने वाला है । जैन संस्कृति के अन्तर्गत कला के जितने भी रूप उपलब्ध हैं सबकी अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि है । गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों, मूर्तियों एव चित्रों प्रादि ललितकला की निर्मितियों द्वारा जैन धर्म ने न केवल लोक का अध्यात्मिक व नैतिक स्तर उठाने का प्रयत्न किया है । किन्तु समस्त देश के विभिन्न भागों को सौन्दर्य से सजाया है । इनके दर्शन से हृदय विशुद्ध और प्रानन्द विभोर हो जाता है ।
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जैन मूर्तिकला की अपनी विशिष्टता है । भारत की प्राचीनतम मूर्तियाँ जो आज उपलब्ध हैं, जैन संस्कृति से ही अधिक घनिष्ठ हैं। दूसरी बात, जैन मूर्तियों की ध्यानस्थ मुद्रा इतनी प्रभावशाली व विशुद्ध होती है कि दर्शक उसके समक्ष पहुँच कर प्रात्मलीन हो जाता है। एकाएक चिन्तन उभरता है - मैं क्या हूँ, मुझे क्या होना है ? समस्त सांसारिक मोह विसर्जित हो जाता है। प्राराध्य के गुणों व ज्ञान की प्राप्ति ही अभीष्ट बन जाती है । इस तरह के भाव अन्य किसी मर्ति को देखने से नहीं उभरते क्योंकि उनमें सांसारिकता मूर्तिपने में भी नहीं छूट पाती ।
जैन चित्रकला आध्यात्मिकता के प्रचार-प्रसार के लिए जितने महत्व की है, उतनी ही प्राचीन भारतीय चित्रकला के इतिहास को जानने के लिए । अजन्ता की गुप्तकालीन बौद्ध-गुफाओं में चित्रकला का जो विकसित रूप दिखायी पड़ता है उससे ही स्पष्ट है कि इसके पूर्व इसकी कोई प्राधुनिक चित्रकला अवश्य रही होगी । नायाधम्मकहाओ' जैसे प्राचीनतम जैन साहित्य में चित्रकला का जो स्वरूप उल्लिखित है, बह प्राचीन भारतीय चित्रकला की ओर ही संकेत करता है । अतः जिस प्रकार आधुनिक भाषाओं के अध्ययन के लिए प्राकृत एवं अपभ्रंश का अध्ययन करना श्रावश्यक है,
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