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जैन संस्कृति का वैशिष्टय
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में धर्म-ध्यान के प्रमाद का इन दिनों परिमार्जन किया जाता है। अतः संवत्सरी पर्व आध्यात्मिक साधना-क्रम में वर्ष का अन्तिम और प्रथम दिन का बोधक है । वैसे तो जैन गृहस्थ प्रतिदिन सामायिक क्रिया के समय (प्रतिक्रमण, प्रात्मशोधन एवं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता है। किन्तु यदि प्रमादवश वह यह कार्य नियमित रूप से नहीं कर पाया हो तो उसके लिए संवत्सरी का दिन पाखिरी दिन होता है आत्मशोधन और क्षमाप्रदान के लिए। उसके बाद उसे अपनी विगत भूलों का परिमार्जन करने के लिए विशेष संयम और तप की आवश्यकता होती है। क्योंकि कषाय जितनी पुरानी होगी उतना ही तीव्र उसका बधन होगा। इसलिए संवत्सरी का विशेष महत्व है । वह पर्व है।
___ संवत्सरी के दिन प्रत्येक जैन प्राणी मात्र को क्षमा प्रदान करता है। अपनी भूलों के लिए क्षमा याचना करता है। प्रेम-मिलन, विश्व-मैत्री, विश्व-वात्सल्य एवं प्रात्मशोधन का ऐमा महान् पर्व जैन संस्कृति की एक अनोखी विशेषता है। लोक-भावना की कद्र
जैन संस्कृति का प्रारम्भ ही लौकिक सभ्यता एवं संस्कृति से हुआ है। एक ऐसी अवस्था से, जब विशेष कुछ था ही नहीं। सब कुछ लौकिक था । बाद में भारत भूमि में जब शिष्ट संस्कृति का प्रादुर्भाव हा तब भी जैन धर्म ने अपना सम्बन्ध लोक से ही बनाये रखा। उसके लिए कुछ उपेक्षित नहीं था। उसकी यी उदार
और लौकिक दृष्टि ही शिष्ट संस्कृति के साथ विरोध का कारण बन गई। दोनों में मंघर्ष चलता रहा।
जैन धर्म अपने विकास क्रम में लोकभावना को नहीं त्याग सका । धार्मिक लोक म न्य नामों को उसमें कभी उपेक्षा नहीं की गई। किन्तु उसका सम्मान करते हुए उन्हें विधिवत् अपनी परम्परा में यथा-स्थान सम्मिलित कर लिया गया है । राम, लक्ष्मण एवं कृष्ण व बलदेव प्रादि वैदिक धर्म के प्रधान देवताओं को जैन धर्म ने जहाँ प्रात्मीयता से अपने पुराणों में आदर और स्थान दिया है, वहां रावण व जरासंघ जैसे अनार्य राजानों को भी उच्चता व सम्मान का स्थान देकर लोक जातियों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचने दी । हनुमान, सुग्रीव आदि को बन्दर के स्थान पर विद्याधर मान कर चलना जैन संस्कृति को उदारता को ही प्रदर्शित करता है। ऐसा जैन पुराणकारों ने इसलिए किया कि लोक में औचित्य की हानि न हो, और साथ ही प्रार्य, अनार्य किमी भी वर्ग की जनता को ठेस न पहुँचकर उन की भावनाओं की भली प्रकार रक्षा हो ।
जैन संस्कृति के देश के किसी एक भाग का व्यामोह नहीं रहा । उसके तीर्थाकर यदि उत्तर भारत में जन्मे तो दिग्गज विद्वानों की परम्परा से दक्षिण भारत सम्पन्न है। चाहे धर्म प्रचार के लिए हो या आत्मरक्षा के लिए जैनी कभी देश के
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