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________________ श्रमण धर्म की परम्परा वाला मानव नगर सभ्यता के निर्माण में जुट गया और धीरे-धीरे सुख-समृद्धि का स्वामी हो गया, संस्कृति का वाहक । इस संस्कृति की अपनी एक मौलिक विशेषता थी, जिस कारण वह बाद में विकसित अन्य संस्कृतियों के साथ गतिशील होने पर भी अपने अलग अस्तित्व की परम्परा रख सकी। ऋषभदेव के उपरान्त आने वाले अजितनाथ आदि विभिन्न तीर्थङ्करों ने इस संस्कृति का पोषण किया और उक्त सदाचार प्रधान योगधर्म का पुनः प्रचार किया, जिसे श्रमण धर्म के नाम से आज हम जानते हैं । श्रमण परम्परा का प्रारम्भ जिस संस्कृति से हरा वह आर्य एवं वैदिक संस्कृति के पूर्व की थी । सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय जिस संस्कृति का आभास अनुमान आज हम लगाते हैं वह श्रमण संस्कृति से अधिक साम्य रखती है, जिसे अाज द्रविण संस्कृति कहते हैं। क्योंकि मूर्ति पूजा, नग्न देवतामों की अर्चना, सर्प, यक्ष, किन्नर आदि लौकिक-देवताओं की तथा शिव भक्ति आदि के उल्लेख मानव की उस प्रारम्भिक अवस्था की ओर संकेत करते हैं जो ऋषभदेव से प्रारंभ हुई थी। बाईस तीर्थङ्कर सिंधुघाटी सभ्यता में प्राप्त अवशेषों के आधार पर प्रतीत होता है कि उसके पुरस्कर्ता प्राचीन विद्याधर जाति के लोग थे । तथा उनके प्रेरक एवं धार्मिक मार्गदर्शक मध्यदेश के वे मानववंशी मूल प्रार्य थे, जो तीर्थङ्करों के प्रात्मधर्म और श्रमण संस्कृति के उपासक थे। तीसरे तीर्थकर सम्भवनाथ से लेकर नौवें तीर्थकर पुष्पदन्त तक का काल सिन्धु सभ्यता के विकास का काल माना जा सकता है । सम्भवनाथ का विशेष चिन्ह अश्व है और सिन्धु देश चिरकाल तक अपने सैन्धव अश्वों के लिए प्रसिद्ध रहा है। मौर्यकाल तक सिन्ध में एक सम्भूतर जनपद और सांभव (संबूज) जाति के लोग विद्यमान थे, जो बहुत सम्भव है तीर्थकर सम्भवनाथ के मूल अनुयायियों की ही वंशपरम्परा में रहे हों। इसी तरह इस सभ्यता में नागफण के छत्र से युक्त योगी-मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जो सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व की हो सकती हैं। इनका चिन्ह स्वस्तिक है और तत्कालीन सिन्धु घाटी में स्वस्तिक एक अत्यन्त लोकप्रिय चिन्ह दृष्टिगोचर होता है । सुपार्श्व से पुष्पदन्त पर्यन्त का काल इस सभ्यता के विकास का काल है। इसी समय हड़प्पा की सभ्यता का विकास प्रारम्भ हुआ लगता है। जैन संस्कृति की इसी प्राचीनता के कारण सम्भवतया उसे अनादि कहा गया है । वैदिक संस्कृति के विकसित स्वरूप और शिष्ट वातावरण को देख कर यही लगता है कि अपने पूर्व की लौकिक संस्कृति के विपरीत एवं प्रतिक्रिया स्वरूप इसका विकास हुआ है। इस प्राचीन संस्कृति के लौकिक देवताओं का स्थान इन्द्र, वरुण प्रादि समृद्धिशाली देवताओं ने ले लिया। संयम और साधना की जगह विभिन्न प्रकार के हिंसक यज्ञों ने ले ली। परमपद की प्राप्ति के स्थान पर केवल इहलौकिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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