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________________ 90 जैन धर्म और जीवन-मूल्य प्रावश्यकताओं की पूर्ति करते समय उनके घात-प्रतिघात से बच नहीं सकता। किन्तु यह प्रयत्न (जतन) तो कर सकता है कि उसके जीवन-यापन के कार्यों में कम से कम प्राणियों का घात हो। उसकी इस अहिंसक भावना से ही करोड़ों प्राणियों को जीवनदान मिल जाता है। प्रकृति का अधिकांश भाग जीवन्त बना रह सकता है। प्राचार्य ने कहा है जयं घरे जयं चिट्टे अयमासे जयं सये । जय भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण वज्झई ।। 'व्यक्ति यत्न-पूर्वक चले, यत्नपूर्वक ठहरे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोए, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक बोले तो इस प्रकार के जीवन से वह पाप-कर्म को नहीं बांधता है।' चलने, ठहरने, बैठने और सोने की क्रियामों का धरती के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । इन क्रियाओं को यदि विवेकपूर्वक और मावश्यकता के अनुसार सीमित नहीं किया जाता तो सारे संसार की हिंसा इनमें समा जाती है। दो गज जमीन की आवश्यकता के लिए पूरा विश्व ही छोटा पड़ने लगता है। ये क्रियाएँ फिर हमारी प्रांखों के दायरे से बाहर होती हैं । अतः उनके लिए की गयी हिंसा, बेईमानी और शोषण हमें दिखता नहीं है, या हम उसे नजर-अंदाज कर देते हैं। अपना पाप दूसरे पर लाद देते हैं। इससे पर्यावरण के सभी घटक दूषित हो जाते हैं। धरती की सारी खनिज-सम्पदा हमारे ठहरने और सोने के सुख के लिए बलि चढ़ जाती है। दूसरी महत्त्वपूर्ण क्रिया भोजन की है। आचार्य कहते हैं यत्नपूर्वक भोजन, करो। इस सूत्र में अल्प भोजन, शुद्ध भोजन, शाकाहार आदि सभी के गुण समाये हुए हैं। भोजन प्राप्ति में जब तक अपना स्वयं का श्रम एवं साधन की शुद्धता सम्मिलित न हो तब तक वह यत्नपूर्वक भोजन करना नहीं कहलाता है। व्यक्ति यदि इतनी सावधानी अपने भोजन में कर ले तो अतिभोजन और कुभोजन की समस्या समाप्त हो सकती है। पौष्टिक, शाकाहार भोजन का प्रचार यत्नपूर्वक भोजन दृष्टि से ही व्यापक किया जा सकता है । इससे कई प्रकार के स्वास्थ्य प्रदूषणों को रोका जा सकता है । यत्नपूर्वक वचन-प्रयोग करने की नीति जहां व्यक्ति को हित-मित और प्रिय बोलने के लिए प्रेरित करती है, वहीं इससे ध्वनि-प्रदूषण को रोकने में भी मदद मिल सकती है। प्राचीन साधकों की इस यत्नपूर्वक (प्रमाद-रहित) जीवन पद्धति को प्राधुनिक मनीषियों ने भी वाणी दी है एवं लोक-जीवन ने उसे प्रात्मसात् कर अपने उद्गार व्यक्त किये हैं , बंगला कहावत में कहा गया है पचे सोई खाइबो, रुचे सोई बोलिबो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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