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तृतीय आचार्य श्रीमद् ऋषिराय ( रायचंदजी ) ४५
यह बालक आचार्य पद के योग्य प्रतीत होता है' और यह भविष्यवाणी सत्य प्रमाणित हुई। आपकी प्रकृति सरल व गुरु के प्रति अनन्य भक्ति भाव से ओत-प्रोत थी। आपके चेहरे पर एक अनुपम आभा प्रकट होती थी व स्वामीजी आपके ओजस्वी मुखमण्डल को देखकर, आपको 'ब्रह्मचारी' कहकर पुकारते थे ।
स्वामीजी के अन्तिम दिनों में उन्हें इस बाल मुनि को उनके प्रति किसी प्रकार का मोह न रखने की शिक्षा दी व उनके द्वारा स्वामीजी के शरीर दौर्बल्य का संकेत देने पर स्वामीजी ने आमरण अनशन कर दिया। आप स्वामीजी के साथ ढाई वर्ष व भारीमालजी के साथ १८ वर्ष रहे। दोनों आचार्यों की सतत सेवा, परिचर्या व सहयोग किया । संवत् १८६६ में भारीमालजी स्वामी का जयपुर चातुर्मास
, वहाँ उन्होंने मुनि स्वरूपचंदजी को स्वयं दीक्षित किया, पर मुनि जीतमलजी को दीक्षा देने, आपको यह कहकर भेजा, 'मेरे पीछे तो भार संभालने वाले तुम हो, तुम्हें अपने उत्तराधिकारी की आवश्यकता है, सो तुम उसे दीक्षित करो ।" वर्षों पूर्व कही बात दोनों महापुरुषों के लिए वरदान प्रमाणित हुई । संवत् १८७७ में नाथद्वारा चातुर्मास सम्पन्न कर आचार्य भारीमालजी राजनगर आए व अस्वस्थ हो गए। वहीं पर मुनि हेमराजजी ने उदयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर व गोगुन्दा में मुनि सतीदासजी को दीक्षित कर उनके दर्शन किए। मुनिश्री खेतसीजी व मुनिश्री हेमराजजी की सहमति व निवेदन पर आचार्यश्री भारीमालजी ने संवत् १८७७ के बैसाख दि 8 को केलवा में श्री रायचंदजी स्वामी को युवराज पद प्रदान किया । पहले नियुक्ति पत्र में उन्होंने खेतसीजी का भी नाम लिखा था, पर दो नामों की परम्परा उचित न होने से बाल मुनि जीतमलजी के निवेदन पर स्वयं खेतसीजी के आग्रह पर केवल रायचंदजी का नाम ही नियुक्ति पत्र में रखा गया । भारीमालजी स्वामी का स्वर्ग प्रयाण संवत् १८७८ के माघ वदि ८ को राजनगर में हुआ । दूसरे दिन आपका पट्टाभिषेक हुआ, जिसके लिए वे सर्वथा योग्य थे । ज्योतिष के हिसाब से माघ महीने की नवमी निषेध तिथि (मेवाड़ी भाषा में 'नखेद तिथि ) होने पर भी आपने 'नखेद' को 'खेद रहित' के रूप में स्वीकार कर शासन-भार संभाला । सचमुच आपका शासनकाल तेरापंथ धर्मसंघ के लिए उत्तरोत्तर प्रगतिकारक व वर्द्ध मान रहा ।
धर्म-प्रचार
संवत् १९७६ का चातुर्मास पाली व संवत् १८८० का चातुर्मास आपने जययुर में किया। जयपुर में धर्म का अच्छा प्रचार हुआ, हजारों लोगों ने दर्शन किए । वहां सैकड़ों लोग श्रद्धालु बने व मुनि वर्द्धमानजी ने ४३ दिन की कठोर तपस्या की, जिसका व्यापक प्रभाव पड़ा। आपके शासनकाल में सं० १८८३ में सर्वप्रथम तीन मुनियों ने छः मासी तप किए - मुनि पीथलजी ने कांकरोली में,
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