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________________ ४२ हे प्रभो ! तेरापंथ ढूंढाड, हरियाणा, थली में विचरण कर आपने अच्छा उपकार किया । आपने संवत् १८६७ में पादू में मुनि नन्दरामजी को दीक्षा दी । आप बड़े तपस्वी हुए व आपने ५/२, ८/२, १२/१, १५/१ व ३०/१ तपस्याएं कीं । शीतकाल में १२ वर्ष तक एक मलमल की चद्दर ओढ़कर रातें बिताईं। स्वाध्याय, ध्यान, स्मरण, जाप, खाद्यविजय कर आपने अपनी आत्मा को निर्मल बनाया। संवत् १८९८ (विक्रम) के आसाढ वदि ७ को आपका अनशनपूर्वक स्वर्गवास हुआ। उग्र तपस्वियों की कोटि व विघ्न-हरण गीतिका में आपका नाम 'अभीराशिको' मन्त्र में सन्निहित है। २. श्रीमद् जयाचार्य (विवरण आगे के पृष्ठों में दिया जायेगा।) ३. मुनिश्री कर्मचंदजी आपका जन्म देवगढ़ में ओसवाल जाति गोत्र पोखरणा वंश में हुआ। संवत् १८७६ में मुनि हेमराजजी के देवगढ़ चातुर्मास में आपको दीक्षा की प्रेरणा मिली। पर जब आप दीक्षा के लिए तैयार हुए तो मोहवश आपके दादा ने बाधा डाली व आपको रोकने के अनेक उपाय किये, पर आप दढ़ रहे । संवत् १८७६ मगसिर वदि १ को मुनि रतनजी व मुनि शिवजी के साथ आपकी भी दीक्षा हुई । आपने चार चातुर्मास मुनि हेमराजजी व दो चातुर्मास श्रीमद् ऋषिराय व २२ चातुर्मास मुनि जीतमलजी (बाद में जयाचार्य) व ४ चातुर्मास मुनि सतीदासजी के साथ किए। १६०८ में आप अग्रणी बने । आप बड़े विनयी व श्रमशील थे। आपकी बुद्धि व ग्रहणशक्ति प्रबल थी। आपने अनेक बार बत्तीस सूत्रों का वाचन किया। आपकी वाचन शैली, व्याख्यान कला व लिपि बहुत सुन्दर थी। आप ध्यान-योगी थे व आपका बनाया हुआ 'कर्मचंदजी स्वामी का ध्यान' (स्वतः चिंतन की रचना) बहुत प्रसिद्ध है। आपका स्वर्गवास संवत् १६२६ जेठ वदि ७ को बीदासर में श्रीमद् जयाचार्य की उपस्थिति में हुआ। ५. मुनिश्री सतीदासजी (शान्ति मुनि) ___आपका जन्म गोगुंदा में श्री बाघजी कोठारी (ओसवाल, बरल्या गोत्र) व माता नवलोजी के यहां संवत् १८६१ में हुआ। आप प्रकृति से शान्त व कोमल एवं . आकृति से सुन्दर व आकर्षक थे। संवत् १८७३ में द्वितीयाचार्य भारीमालजी गोगुदा पधारे, तब आप उनके दर्शन व प्रवचन-श्रवण से बहुत प्रभावित हुए । संवत् १८७४ में मुनिश्री हेमराजजी (मुनि जीतमलजी भी साथ थे) के चातुर्मास में आपने खूब तत्त्वज्ञान सीखा व आजीवन अब्रह्मचर्य सेवन व व्यापार करने का त्याग कर दिया तथा साधु बनने को लालायित हुए। पर परिवारवालों ने आपको बहुत कष्ट दिए व दीक्षा की अनुमति नहीं दी व बलात् उनका विवाह रचा दिया। जिस व्यक्ति का अन्तर्मन बंधन-मुक्ति के लिए छटपटाने लगता है, उसे बंधन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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