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तेरापंथ का उदयकाल
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मालजी को कह दिया
“अब तुम निश्चिन्त हो गए हो क्योंकि पहले तो चर्चा वार्ता के लिए मैं था, अब 'हेम' हो जायेगा ।" उनकी यह भविष्यवाणी सत्य निकली और ऐसा लगता है कि हेमराजजी ने दीक्षित होने के बाद स्वामीजी की समूची ज्ञान- ऊर्जा अपने में समाहित कर ली । दीक्षा के बाद प्रथम चार चातुर्मास उन्होंने स्वामीजी के साथ व पांचवां मुनिश्री वेणीरामजी के साथ किए व आगमों का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया व तत्त्वचर्चा के विविध व सूक्ष्म रहस्यों की धारणा की । उनकी व्याख्यान कला अद्वितीय थी । स्वामीजी ने उनको परम उपकारी, विशिष्ट प्रतिभा के धनी एवं कंठ कला आदि गुणों को देख कर संवत् १८५८ में उन्हें अग्रगण्य बना दिया । मुनि श्री शासन में बड़े प्रभावशाली संत हुए, व उन्होंने संघ में कई यशस्वी एवं विज्ञ संतों को तैयार किया । जब संवत् १८७५ में उदयपुर महाराणा ने लोगों के बहकावे में आकर आचार्यश्री भारी मालजी को शहर से निकलवा दिया व बाद में भूल का अहसास होने पर वापस पधारने के लिए प्रार्थना कराई तो आचार्यश्री भारीमालजी तो नहीं गए पर उन्होंने हेमराजजी स्वामी को १३ संतों सहित संवत् १८७७ का शेषकाल व चातुर्मास प्रवास करने उदयपुर भेजा और वह चातुर्मास बहुत प्रभावक रहा। मुनि जीतमलजी उस समय आपके साथ थे। वैसे संवत् १८६९ से सं० १८८१ तक दीक्षा के बाद से ही मुनिश्री जीतमलजी आपके पास ही रहे व इन बारह वर्षों में आपने स्वामीजी से प्राप्त अपनी समस्त ज्ञानऊर्जा मुनिश्री जीतमलजी में उड़ेल दी; वस्तुतः प्रज्ञापुरुष स्वामीजी व जयाचार्य के बीच प्रखर ऊर्जा के हस्तांतरण में आप सेतु बने । श्रीमद जयाचार्य ने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व का सारा श्रेय हेमराजजी स्वामी को दिया है व यहां तक कहा कि, "मैं बिंदु के समान था, मुझे उन्होंने सिंधु बनाया ।" श्रीमद् जयाचार्य का शिल्पकार होने का श्रेय ही आपको है । इतना ही नहीं, शासन के अन्य अग्रगण्य व विशिष्ट साधु मुनिश्री स्वरूपचन्दजी, श्रीभीमजी, श्रीकर्मचन्दजी, श्रीसतीदासजी, श्रीहरखचन्दजी आदि ने भी वर्षों तक आपके सान्निध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त की व शासन को बेजोड़ सेवाएं दीं । मुनिश्री ने अपने हाथों से १७ दीक्षाएं, स्वयं प्रतिबोध देकर प्रदान कीं। उस समय किसी मुनि द्वारा दीक्षाएं देने का यह कीर्तिमान है। उनके साथ रहकर अनेकानेक मुनियों ने छ: मासी, चारमासी व अन्य बड़ी-बड़ी तपस्याएं कीं । मुनिश्री जीतमलजी ने अग्रगण्य बनने के बाद भी प्रायः प्रत्येक चातुर्मास की समाप्ति पर आपके यथाशीघ्र श्री दर्शन कर आपसे शिक्षा प्राप्त करने का एक निश्चित क्रम - सा बना लिया था । संवत् १९०३ में तो उन्होंने युवाचार्य अवस्था में भी, मुनिश्री हेमराजजी के साथ नाथद्वारा में चातुर्मास किया व उस चातुर्मास में उनसे स्वामीजी के विविध संस्मरण सुनकर लिपिबद्ध किए व 'भिक्षु दृष्टान्त' नामक अद्भुत ग्रन्थ की
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