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________________ २४ हे प्रभो ! तेरापंथ संथारे का समाचार हवा की तरह समूचे क्षेत्र में फैल गया । झुण्ड के झुण्ड लोग आकर उनकी वंदना, अभ्यर्थना, स्तुति करने लगे । उनके संथारा सम्पन्न होने तक अनेक लोगों ने त्याग प्रत्याख्यान किए। संथारे में भी आचार्य भिक्षु M भारमलजी स्वामी को जनता को व्याख्यान देने व उन्हें धर्मोपदेश सुनाने का आदेश दिया । उस रात्रि में स्वामीजी ने गहरी नींद ली व उनके चेहरे पर एक अपूर्व तेज व शांति खिल रही थी । तेरस के सूर्योदय के साथ जनता की भीड़ दर्शनार्थ उमड़ पड़ी । स्वामीजी ध्यान - मुद्रा में रहे, लगभग डेढ़ प्रहर दिन चढ़ें, आंख खोलकर उन्होंने कहा - "१. शहर में त्याग प्रत्याखान कराओ, २. साधु आ रहे हैं, सामने जाओ, ३. साध्वियां आ रही हैं, " इतना कहकर फिर ध्यान में लीन हो गए । गुलोजी श्रावक बोले, “स्वामीजी का मन साध्वियों में रह गया है ।" भारीमलजी स्वामी उन्हें अर्हत, सिद्ध साधु, धर्म का शरण उद्घोषित करते रहे पर किसी को यह ध्यान नहीं रहा कि स्वामीजी को अवधिज्ञान हो सकता है । एक मुहूर्त बाद पाली चातुर्मास कर रहे मुनिश्री वेणीरामजी व कुशलजी दो साधु वहां पहुंचे, स्वामीजी ने उनके मस्तक पर हाथ रखा, वे उस समय तक पूर्ण सजग थे। दो मुहूर्त बाद तीन साध्वियां - १. बगतूजी, २. झुमांजी, ३. डाहीजी ने आकर स्वामीजी के दर्शन किए । स्वामीजी की कही दोनों बातें मिल गईं, तब लोगों की निश्चित धारणा बनी कि स्वामीजी को संभवतः अवधिज्ञान हुआ है । स्वामीजी को विश्राम करते हुए कुछ समय हुआ तो साधुओं ने बिठा दिया । वे तत्काल पद्मासन की मुद्रा में बैठ गए । ज्योंही दर्जी ने उनकी शव यात्रा निमित्त तैयार की गई तेरह खंडी बैकुंठी की सिलाई सम्पन्न कर सूचना दी व पगड़ी में लगाई, कि स्वामीजी ने उसी मुद्रा में प्राण छोड़ दिये । पद्मासन मुद्रा में देह त्याग करने वाला कोई महान पवित्रात्मा ही हो सकता है और फिर अतीन्द्रीय ज्ञान के साथ इच्छामृत्यु प्राप्त करने की जैन शासन के अर्वाचीन इतिहास में यह विरल घटना है । इस प्रकार संवत् १८६० के भादवा सुदि १३ मंगलवार को डेढ प्रहर दिन अवशेष रहते सात प्रहर के तिविहार अनशन से सिरीयारी में स्वामीजी ने चित्त समाधिपूर्वक महाप्रयाण किया । ऐसा माना जाता है कि स्वामीजी यहाँ से देह त्यागकर पंचम स्वर्ग में इन्द्र रूप में ( ब्रह्म ेन्द्र ) उत्पन्न हुए । चाहे जो हो, इस भूलोक का एक जाज्वल्यमान नक्षत्र अपनी संपूर्ण आभा को समेटकर चारों दिशाओं में ज्योति व सौरभ फैलाकर अस्त हो गया । स्वामीजी के अन्तिम संस्कार का स्मारक सिरीयारी में मौजूद है । १. प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण पर किए निष्कर्षों के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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