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________________ आचार्यश्री भिक्षु की मान्यताएं व मर्यादाएं... १७१ आचार्य भिक्षु ने शुद्ध संयम के निर्वाह और सुरक्षा हेतु धर्म संघ की स्थापना की, मर्यादा पत्रों का निर्माण किया तथा उसमें उपरोक्त शिथिलाचारी वृत्तियों का, भूलोच्छेद किया। एक आचार्य की आज्ञा में रहने और सारी शिष्य-शिष्याएं एक आचार्य के होने का विधान किया, जिसमें अहंकार और ममकार की कलुष भावना स्वतः समाप्त हो गई तथा शिष्य प्रथा के दोषों का शमन हो गया। उन्होंने स्वयं में साधुत्व के प्रति आस्था, संघ के साधु-साध्वियों तथा आचार्य में साधुत्व की आस्था रखने के संकल्प के साथ संघ को एकरूपता प्रदान की। स्वयं के आत्मानुशासन पर आधारित संघ निर्माण से साधु समुदाय की साधना को अपूर्व बल मिला और उसी का परिणाम है कि तेरापंथ धर्मसंघ विकस्वर है। स्वयं आचार्य भिक्षु से जब पूछा गया कि 'तेरापंथ कब तक चलेगा?' तो उन्होंने दो-टूक उत्तर देते हुए कहा, जब तक उसका अनुगमन करने वाले साधु-साध्वी श्रद्धा और आचार में सुदृढ़ रहेंगे, वस्त्र, पात्र, उपकरण व शिष्यों पर ममत्व भाव नहीं रखेंगे, स्थानक बांधकर नहीं बैठेंगे, तब तक यह मार्ग चलेगा। आचार्य भिक्षु का मूल मंत्र था, 'आत्म-सिद्धि' और साधन था 'वीतरागता की साधना'। इसको उन्होंने अनेक प्रकार से स्थान-स्थान पर सरल शब्दों में व्यक्त किया, जो आज भी जन-जन की स्मृति में सजीव है, जैसे "कहो साधु किसका सगा, तड़के तोड़े नेह आचारी सुं हिले मिले, अणाचारी सुं छेह ॥" . "जिन मार्ग में देख लो, गुण लारे पूजा गुण बिना पूजे तिके, मार्ग छे दूजा ।" "बुद्धि वाहि सराहिये, जो सेवे जिन धर्म और बुद्धि किण काम री, पड़िया बांधे कर्म ॥" आदि-आदि। आचार्य भिक्षु ने आत्म-साक्षात्कार तथा वीतरागता के मार्ग की सतत खोज में, जिस अखण्ड एवं समग्र सत्य को अनुभव किया, उसको कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की साधना से आत्मसात कर सकता है, पर जो व्यक्ति आत्मा से परे की वस्तुओं की अभिसिद्धि को अपना ध्येय बना लेता है तथा भौतिक वस्तुओं पर ममत्व भाव रखता है, उसके लिए आचार्य भिक्षु द्वारा प्रस्थापित शाश्वत मूल्यों को समझना या उस पर चलना दुरूह हो जाता है। आज के युग में जब वीतराग प्रभु के अनुयायी बनने का दम भरने वाला, अधिकांश साधु समुदाय, सुख-सुविधाभोगी बनता जा रहा है, जिसे अपनी यशकामना और महत्त्वाकांक्षा के कारण, अनासक्त और असंग जीवन जीने में कठिनाई महसूस हो रही है, और जो लोकेषणा के भंवर-जाल में फंसकर नाम, पद, यश, सुविधा के लिए अहर्निश प्रयत्नशील है, वह वास्तव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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