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________________ तेरापंथ का उदयकाल ५ हाथ के मध्य मत्स्याकार रेखा, दाहिनी कलाई के पास तीन मणि बंध, दोनों हाथों की सभी अंगुलियों पर चक्र, ग्रीवा व ललाट पर तीन-तीन लम्बी रेखाएँ, दोनों कानों की लोल गाढ़ी व उन पर रोम, पेट पर नाभि के पास स्वस्तिक का चिह्न व ऊपर ध्वजा का आकार थे। समसामयिक सन्त व राजा भिक्षु स्वामी के समसामयिक महापुरुषों में शाहपुरा पीठ रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी रामचरणजी महाराज का नाम उल्लेखनीय है। वे भिक्षु के गृहस्थावस्था में मित्र थे। भिक्षु की बुआ सोढ़ा गांव में ब्याही थी, रामचरणजी की वह जन्मस्थली थी। बचपन में भिक्षु सोढ़ा गाँव जाते, तब दोनों का सम्पर्क होता रहता। दोनों का हृदय संसार से विरक्त था, अतः दोनों घंटों बैठकर अध्यात्म-चर्चा करते व संन्यासी बनने की कामना करते। रामचरणजी मूलतः टूढाड़ में मालपुरा गांव के थे। उनके पिता का नाम बख्तूरामजी व माता का नाम देऊजी था। उनका जन्म संवत १७७६ की माघ शुक्ला १४ को उनके ननिहाल सोढ़ा गाँव में हुआ था। वे विजयवर्गीय वैश्य थे। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जयपुर-नरेश ने उन्हें राज्याधिकारी नियुक्त किया, पर जिनके चित्तवृत्ति में वैराग्य हो, वह भला सांसारिक बन्धनों में कब तक बंधा रह सकता है ? संवत् १८०८ की भादवा शुक्ला सप्तमी को उन्होंने दाँतड़ा गांव में स्वामी कृपारामजी के पास दीक्षा स्वीकार कर ली व रामस्नेही सम्प्रदाय में आपने अध्यात्म के नये प्रयोग किए व शाहपुरा पीठ कायम की। उनकी रचनाओं में जैन संस्कारों व तेरापंथ की विचारशैली का स्पष्ट प्रभाव है, जिसका कारण सम्भवतः स्वामी भिक्षु का नकट्य रहा होगा। भिक्षु जब दीक्षित हुए तब जोधपुर में महाराजा बख्तसिंहजी राज्य कर रहे थे, जिन्होंने उसी वर्ष अपने भतीजे महाराज रामसिंह को परास्त कर श्रावण वदि १२ को जोधपुर किले पर कब्जा किया। मेवाड़ में उस समय महाराणा रामसिंह द्वितीय का आधिपत्य था जो विक्रम संवत् १८०६ में राज्यारूढ़ हुए। दीक्षा के बाद आठ वर्ष दीक्षा के बाद, आठ वर्ष तक भिक्षु स्वामी ने मनोयोगपूर्वक जैन आगम-ग्रन्थों का गंभीर एवं तलस्पर्शी अध्ययन किया और थोड़े समय में ही उन्हें जैन धर्म;. दर्शन व शीलचर्या का अच्छा ज्ञान हो गया। दीक्षा के समय उन्हें न तो साधुत्व के शुद्ध आचार की पूरी जानकारी थी और न तत्त्वों का ही गहरा ज्ञान था। अध्ययन के साथ, उन्हें लगा कि धर्मसंघों में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र की साधना का अभाव है व कहीं-कहीं दृष्टि-विपर्यय भी है। उन्होंने देखा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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