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________________ युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी १४३ मन संकोच अनुभव करता। यह क्रम सदा बर्द्धमान रहा, सहपाठी सन्तों में इस बात को लेकर प्रतिस्पर्धा के भाव जग सकते थे पर उसकी मिलनसारिता और व्यवहार कुशलता ने उस सुलगते भाव को प्रतिहत कर दिया। श्री कालूगणि कभी एकान्त क्षणों में मुनि तुलसी को बुलाते और धर्मसंघ की आन्तरिक गतिविधियों पर विचार-विमर्श करते । मुनि तुलसी अनुभव करने लगे कि संघ का दायित्व उन पर आ सकता है । साधु समाज और श्रावक समाज के अनेक व्यक्ति इस सम्बन्ध में आश्वस्त हो गए । मुनि जीवन का ग्यारह वर्ष का समय तुलसी के मन में साधत्व के प्रति घनीभूत आस्था के निर्माण का समय था । उस अवधि में अध्यात्म की गहराई तक पहुंचने या साधना के नये प्रयोग करने की न तो आवश्यकता लगी, न अवसर ही आया। आचार्य पद पर वि० संवत् १९६३ में कालूगणि अस्वस्थ हुए । अनेक उपचार हुए पर लाभ नहीं हआ। उन्हें अपने जीवन के अन्तिम समय का अहसास हो गया । उसी वर्ष भादवा सुदी ३ (२१-८-३६) को गंगापुर (जिला भीलवाड़ा) में मुनि तुलसी को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया। इसके तीन दिन बाद कालूगणि का महाप्रयाण हो गया और धर्मसंघ का दायित्व एक बाईस वर्षीय युवा संत के कन्धों पर आ गया । भादवा सुदी ६ (२७-८-३६) के दिन आचार्य तुलसी न विधिवत् आचार्य पद का दायित्व सम्भाला । छोटी उम्र, बड़ा दायित्व किन्तु आपने कभी उसका भार अनुभव नहीं किया। सारी गतिविधियां सामान्य किन्तु व्यवस्थित रूप से चलने लगीं। धर्मसंघ को नया मोड़ या नयी दिशा देने का लक्ष्य अभी तक बना नहीं था। शिक्षा के प्रति आकर्षण बहुत अधिक बढ़ा । इस क्षेत्र में नये उन्मेष लाने का चिन्तन स्थिर बना। आचार्यश्री ने सर्वप्रथम साध्वियों को शिक्षित करने का काम हाथ में लिया। जिसके लिए उन्हें कालूगणि ने अन्तिम प्रेरणा दी थी। उस समय साध्वियों में शिक्षा के प्रति न अभिरुचि थी न पुरुषार्थ ही था । राजनीतिक दासता और मानसिक गुलामी का प्रभाव सर्वाधिक महिलाओं पर था। राजस्थान में तो विशेष था। आचार्यश्री ने नारी जागरण के लिए, उसमें शिक्षा की मानसिकता बनाना आवश्यक समझा तथा साध्वी समाज पर प्रयोग किया। कुछ वर्षों तक यथेष्ट परिणाम नहीं आया। पर धीरे-धीरे एक क्रम बना और साध्वी समाज प्रगति की ओर अग्रसर होने लगा। आज तेरापंथ साध्वी समाज का जो बहुआयामी विकास दष्टि-गोचर हो रहा है, उसका पूरा श्रेय आचार्यश्री तुलसी को है। साध्वियों की शिक्षा के साथ ही आचार्यश्री ने अपने संघ को साहित्य और दर्शन में प्रवेश करने की प्रेरणा दी । तर्कशक्ति का विकास हुआ। चर्चा परिचर्चाओं के दौर चले, निबन्ध लेखन व भाषण-कला का विकास हुआ । उस समय अहिंसक दृष्टि का पूरा विकास For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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