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अमोलकचंदजी व झूमरमलजी (छापर) ने सपत्नीक दीक्षा ली । ५६. मुनि फूसराजजी - आगमों के विशेष अध्येता ।
श्रमणी परिवार
साध्वी कस्तूरोंजी ( मोंडा ) - साहसी, व्याख्यान - कुशल एवं प्रभावक साध्वी रामकुंवरजी - व्याख्यानी, चर्चावादी, शास्त्रज्ञ एवं साहसी
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नवयुग का उदय व विकास १३७*
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भूरोंजी ( चितामा ) - सरावगी जाति में से बहुत वैराग्य से दीक्षित गंगोजी ( मोंडा) प्रतिष्ठित, चर्चावादी, निर्भीक, दूरदर्शी, संस्कार प्रेरक,शहर क्षेत्र के निर्माण में अपूर्व सहयोग, स्वाध्याय प्रेमी ।
जड़ावोंजी (जयपुर ) – पुरानी रागों की अच्छी गायिका । स्वयं आचार्यश्री तुलसी व कुंदन मुनि ने उनसे पुरानी रागों का ज्ञान प्राप्त किया । सर्व साध्वीश्री नोजोजी, विरोधोंजी, सोनोंजी, अंभाजी- विशेष सेवाभावी साध्वियां, साध्वी सोनोंजी ( सरदारशहर) अंत तक आचार्यवर व बालमुनियों की सेवा करती रहीं तथा सिलाई, रंगाई की कलाओं में वे बहुत कुशल थीं ।
साध्वी लाडोंजी (लाडनूं), भतूजी ( बीदासर ) रतनोंजी (सुजानगढ़), लाधूजी ( सरदारशहर), छगनोंजी (बोरावड़), कुनणोंजी ( सरदारशहर ) साहसपूर्वक कार्य करने वाली तथा संस्कार भरने में सिद्धहस्त साध्वियां हुईं।
साध्वी खुमोंजी -- मातुश्री छोंगोजी की ३१ वर्ष तक सतत व संपूर्ण सेवा परिचर्या में रहीं। बहुत विवेकशील, कर्मठ व संकेत समझने वाली । " आचार्यवर से अनेक प्रकार से सम्मानित (समुच्चय कार्य से मुक्त; सात: साध्वियों की सेवा आदि) । भगवती की जोड़ सुन्दर लेख से लिखी । साध्वी झमकूजी - साध्वी कानकुंवरजी के स्थिरवासिनी होने पर साध्वियों की सार संभाल करने लगी । कर्मठता, स्फूर्ति, चातुर्य, गंभीरता सहिष्णुता एवं मधुर व्यवहार की धनी । बाद में साध्वीप्रमुखा बनीं। साध्वी हीरोंजी -- मधुर वाणी, साधु जीवनोपयोगी उपकरणों की कलात्मक निर्मात्री ।
साध्वी हुलासोंजी - भगवती की जोड़ों की की लिपिकर्ता, अनुशासित, विनम्र, पाप भीरु ।
साध्वी प्रतापोंजी - सुन्दरजी, कमलूजी ( जयपुर ) ज्ञानोंजी, रूपोंजी, सोहनोंजी – ये सब हस्तलिपि विशारद व विनयनिष्ठ साध्वियां थीं । साध्वी सुन्दरजी (लाडनूं), दीपोंजी (सिरसा), नजरकुंवरजी (ब्रास ), गुलाबोंजी (भादरा ), मोहनोंजी (राजगढ़) - ये सब तत्त्वज्ञ व अच्छी
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