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________________ नवयुग का उदय व विकास ११७ मुनि कालू को आचार्य पद पर बिठा दो सब कुछ ठीक हो जाएगा। वे सर्वथा आचार्य पद के योग्य हैं, वे श्रीमद् मघवागणि के विश्वासपात्र रहे हैं। आचार्य की नियुक्ति में विलंब होने से उलझनें बढ़ जाएंगी ।' मगन मुनि को अपने साथी की क्षमता के बारे में प्रशंसा सुनकर विस्मय और प्रमोद हुआ, पर वे भावना में बहने वाले नहीं थे। मुनि कन्हैयालालजी ने केवल अपने मन की ही नहीं, अनेक मुनियों के मन की बात कही थी । अतः मगन मुनि इस पर गहराई से चिंतन अवश्य करने लग गए ।' आपको ज्योंही मगन मुनि के चिंतन का पता लगा तो आपने उनको स्पष्ट कह दिया, 'आचार्य पद संभालन योग्य मेरी तैयारी नहीं है । मेरे लिए आचार्यत्व की बात असामयिक है । अवस्था, अनुभव तथा समय परिपक्व नहीं हुआ है, आप मेरा चिंतन बिल्कुल नहीं करें ।' इतनी विरल निस्पृहता की बात सुनकर मगन मुनि को ही नहीं, गुरुकुल वास के सभी संतों को आश्चर्य हुआ । सत्ता की होड़ में अवसर मिलने पर भी पीछे सरकने वाला आप जैसा आत्मार्थी साधु बिरला ही मिलेगा । संवत् १६५४ पौष कृष्णा ३ को मुनि कालूजी ( बड़ा ) उदयपुर से चातुर्मास कर लाडनू पधारे, जहां सारा सघ उनकी अतीव उत्कंठा से प्रतीक्षा कर रहा था, क्योंकि ऐस अवसर पर वे ही एक ऐस समर्थ और क्षमताशील साधु थे, जो समाधान दे सकते थे । उन्होंने आते ही सारी स्थितियों का अवलोकन कर, उसी दिन मुनिश्री डालचंदजी को संघ का भावी आचार्य घोषित कर दिया। श्रीमद् Staff का व्यक्तित्व बहुत तेजस्वी था। उनसे हर कोई बात करने का साहस ही नहीं कर पाता अतः उन्हें संघ के सारे साधुओं को गहराई से जानने का अवसर भी नहीं मिल पाता था । उन्होने भी माणक गणि के संभावित उत्तराधिकारी की खोज पर ध्यान दिया और दृष्टि दोड़ाई पर वे कोई निर्णय नहीं कर पाए। बाद में उन्होंने मगन मुनि को बुलाकर बार-बार आग्रह करके पूछा कि यदि वे आचार्यपद नहीं संभालते तो उन्हान विकल्प में किसका नाम सोचा था ? मन्त्री मुनि जब उत्तर देन के लिए विवश किए गए तो उन्होंने बता दिया कि विकल्प में उनके सामने मुनि कालूजी (छापर) का नाम था । डालगणि निश्चिन्त हो गए। एक बार श्रीमद् डालगणि ने आपको बुलाकर पूछा, “ अन्तरिम काल में व्यवस्था कैसी रही और तुम्हारा चिन्तन किसे आचार्य बनाने का था ?" आपने भांप लिया कि किसी ने उनके विरुद्ध आरोप लगाया है कि वे डालगणि के समर्थन में नहीं थे । आपने स्पष्ट उत्तर दिया, "मैं मघवागणि का शिष्य हूं, वे मेरे आदर्श हैं तथा उनके पदचिह्नों का अनुकरण करना मेरा धर्म है । माणकगण की भी मैंने उसी निष्ठा से सेवा की है । व्यक्तिशः मैं आपका अनुगामी कभी नहीं रहा, पर मैं गण और गणि के प्रति सदा समर्पित रहा हूं और रहूंगा तथा आप आचार्य हैं इसलिए मैं आपका सदा सेवक बन कर रहूंगा । चिकनी चुपड़ी बातें करना, लंबे-लंबे हाथ जोड़ना,. चापलसी करना मझे कभी पसंद नहीं रहा है।' इतने स्पष्ट उत्तर ने डालगणि जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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