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________________ छठे आचार्य श्रीमद् माणकगणि ६५ रास्ते में श्री जयाचार्य ने उचित अवसर देखकर लालाजी को कहा, 'यदि माणक दीक्षा ले तो लब्ध-प्रतिष्ठता साधु होगा।' लालाजी ने प्रत्युत्तर में कहा, 'यह हमारे लिए सौभाग्य होगा, पर उनकी इच्छा हो तभी साधुत्व आ सकता है।' श्री जयाचार्य ने फिर कहा, 'यदि उसकी इच्छा हो तो आपको अनुमति देने में तो आपत्ति नहीं होगी।' लालाजी अपने लाड़ले के बिछोह को सहन नहीं कर सकते थे, पर श्री जयाचार्य के आगे इनकार करने का भी उन जैसे शासन एवं गुरुभक्त श्रावक के लिए साहस जुटाना सुगम नहीं था । अत: उन्होंने विषयान्तर करते हुए कहा, 'यह शहर में रहने वाला है, इसका शरीर कोमल है, मैंने लाड़-प्यार से पालापोसा है । अत: इसके लिए पैदल चलना, साधुत्व की कठोर परिचर्या पालन करना तथा परीषह सहना कैसे सम्भव होगा ?' श्री जयाचार्य के हृदय में माणक के प्रति आकर्षण पैदा हो चुका था। अतः उनके मुंह से सहज भाव से निकल गया, 'इसकी "चिता तो हम करेंगे । माणक रजोहरण तो उठा ही लेगा। मेरा उत्तरदायित्व तो मघजी संभाल लेंगे, उनका भार संभालने वाला भी तो चाहिए।' श्री जयाचार्य के अनुग्रह भरे शब्दों को सुनकर लालाजी भाव-विभोर हो गए व उन्होंने तत्काल अनुमति दे दी । नांवा में श्री जयाचार्य ने 'माणक' को प्रतिक्रमण सीखने का आदेश दे दिया । आपके बड़े भाई किस्तूरचन्दजी ने आपको दीक्षा की अनुमति दे दी। लाडन में लालाजी का पूरा परिवार, जयपुर में दीक्षोत्सव की पूर्ण तैयारी करके, गुरु-चरणों में उपस्थित हो गया। श्रीमद् जयाचार्य ने लाडनूं में प्रवेश करते ही दक्षिण दरवाजे के बाहर पीरजी के स्थान पर, फागुण सुदि ११ को पुष्य नक्षत्र में 'माणक' को दीक्षा प्रदान की। आसपास के सैकड़ों लोग तथा लाडनूं के ठाकुर श्री बादर सिंह जी वहां उपस्थित थे। संयम ग्रहण करते ही माणक मुनि ने साधना के साथ-साथ सैद्धान्तिक ज्ञानार्जन में अपने को पूर्णतः लगा दिया। अपने प्रथम तीन चातुर्मास (१९२६, ३०,३१) श्रीमद् जयाचार्य के साथ किए। संवत् १९३१ में आपको अग्रणी बनाया गया। संवत् १९३२ से १६४६ तक पन्द्रह वर्ष आप अग्रणी के रूप में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, बालोतरा, पचपदरा आदि स्थानों पर बिराजे तथा श्रमनिष्ठा से अध्यात्म का अपूर्व आलोक फैलाया। संवत् १९४३ में जयपुर में आपने संस्कृत की सिद्धान्त चंद्रिका व्याकरण का पूरा अध्ययन किया । संवत् १९३८ में श्रीमद् मघवा गणि पट्टासीन हुए । उनका भी आपके प्रति पूर्ण वात्सल्य भाव रहा। श्री मघवागणि ने संवत् १९४३ में कविराजजी सांवलदानजी को बहुत पहले ही आपके भावी आचार्य होने का संकेत दे दिया था। संवत् १९४५ में राजलदेसर में साध्वी तीजोंजी को दीक्षा देने आपको भेजा । संवत् १९४६ में जोधपुर में आपके पैर में 'कीड़ी नगरा' हो गया पर उस भयंकर बीमारी में भी आपने विहार कर श्री मघवा गणि के बीदासर में दर्शन किए, जहां केवलचंदजी यति के औषधोपचार से आपका रोग शांत हो गया, पर तब से आप श्री मघवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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