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कर्मों का व्यावहारिक बंध
जीवन एक वर्ष का होता है। प्रमुख कषाय की दूसरी कोटि चार माह तक प्रभावी होती है और पहली कोटि को दमित या अनभिव्यक्त कषाय कहते हैं जिसका प्रभाव पंद्रह दिन तक रहता है। सभी प्रमुख कषायों की शून्य कोटि का अर्थ है - प्राणी की उच्चतर आध्यात्मिक कोटि। मेहता (1939) ने जैन मनोविज्ञान के विषय में अच्छा विवरण दिया है। उन्होंने विशेषतः कषाय और कार्मन-कणों के सिद्धांत को आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में विवेचित किया है।
हमने अभी चार प्रमुख कषायों का उल्लेख किया है – क्रोध, मान, माया और लोभ। वस्तुतः ये चारों कषायें नौ प्रकार के नो-कषायों या भावनाओं के लिये उत्तरदायी होती हैं। इनके नाम हैं : 1. हास्य 2. रति 3. अरति 4.जुगुप्सा (घृणा) 5. भय 6. दुःख 7. स्त्री वेद 8. पुरूष वेद 9. नपुसंक वेद यहां चिंता को भय में समाहित किया गया है, लेकिन यह अपने प्रति हिंसा के भाव की अधिक प्रतीक है। इसके विषय में अध्याय 6 में विवेचन किया जायगा।
5.5. पारिभाषिक शब्दावली
1. योग = मन, वचन, काय की क्रिया
भाव = मानसिक प्रवृत्तियां 2. कर्म-बन्ध के पांच कारण मिथ्यादर्शन/मिथ्यात्व = त्रुटिपूर्ण/असत्य
दृष्टिकोण अविरति = असंयम, व्रतों का पालन न करना
प्रमाद - आलस्य, अरुचि
चार प्रमुख कषाय : क्रोध, मान, माया और लोभ-लालसा, संग्रह की वृत्ति, असीम इच्छायें
3. नो-कषाय या द्वितीयक कषाय
राग : प्रीति, अनुराग आदि द्वेष : घृणा, ईर्ष्या आदि
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