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________________ 56 जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला तीसरी कोटि परिपक्व वृक्ष से काटे गये लकड़ी के लट्टे के समान होती है जो तैलित और गरम करने पर ही मोड़ी जा सकती है। इस कषाय की चौथी कोटि वृक्ष पर आधारित किसी भी अनुरूपता से भिन्न होती है। यह ग्रेनाइट के टुकड़े के समान मोड़ी नहीं जा सकती। इस कषाय की शून्य कोटि नम्रता और विनय की संसूचक है। 3. माया कषाय : इस कषाय की तुलना कुटिलता से की जा सकती है। इसकी प्रथम कोटि गेहूं के वृंत के समान होती है जो हवा से ही झुक जाती है और थोड़े से ही प्रयत्न से सीधा हो जाती है। इसकी दूसरी कोटि किसी बगीचे या उद्यान की सीमा रक्षक घास के समान होती है जिसे बुरी तरह से काट दिया गया हो और जिसे ठीक करने में काफी श्रम और समय लगता हो। इसकी तीसरी कोटि एक टेढ़े-मेढ़े दांत के समान होती है, जिसे यदि समय रहते नियंत्रित न किया गया, तो वह सीधा नहीं हो सकता। इसकी चौथी कोटि किसी वृक्ष की गांठ के समान होती है। इसकी शून्य कोटि सरलता की सूचक है। 4. लोभ कषाय : यह कहा जाता है कि लोभ मनुष्य के हृदय (और बद्धि) के स्वरूप को परिवर्तित कर देता है। इसकी प्रथम कोटि. जलीय पेंट या लेप के समान होती है जिसे पानी से शीघ्र ही सरलता से दूर किया जा सकता है। इस कोटि में प्राणी का हृदय पीले रंग का हो जाता है। इसकी दूसरी कोटि खाने-पकाने की उस कड़ाही के समान होती है जिसमें वसायें चिपट जाती हैं और उनको साफ करने में काफी श्रम करना पड़ता है। इस कोटि में प्राणी का हृदय मटमैला हो जाता हैं। इसकी तीसरी कोटि कपड़े पर तेल के दाग के समान होती है जिसे केवल 'शुष्क-सफाई की विधि से ही दूर किया जा सकता है। इस कोटि में प्राणी का हृदय काफी रंगा हुआ हो जाता है। इसकी चौथी कोटि एक स्थायी रंजक के समान होती है जिसे दूर करना कठिन ही होता है। लोभ कषाय की शून्य कोटि पूर्ण संतोष एवं चतुर्विध दान की प्रवृत्ति की प्रतीक है। कषायों की इन कोटियों को इनके प्रभावों की समय-सीमा से भी सह-सम्बन्धित किया जा सकता है (देखिये, ग्लेजनप, 1942)। प्रत्येक प्रमुख कषाय की चौथी कोटि की स्थिति जीवन-पर्यंत होती है। इसकी तीसरी कोटि के प्रभाव - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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