________________
जन्म-मरण के चक्र
wwwwww
10%
आध्यात्मिक उपाध्याय
द्वितीय चक्र 10 । अपराधी मनुष्य
प्रथम चक्र
सांप
wwwww
चित्र 4.4 एक अपराधी के सांप होने के प्रथम चक्र में और उसी
के आध्यात्मिक गुरु होने के द्वितीय चक्र में कर्म-पुदगलों पर निर्भर दो क्रमागत जीवन-चक्रों के साथ जीवन की धुरी।
स्वतःसिद्ध अवधारणा 2 के परिप्रेक्ष्य में, कोई भी अपना जीवन चक्र केवल मनुष्य की अवस्था के माध्यम से ही समाप्त कर सकता है, क्योंकि इसी अवस्था में कार्मिक घनत्व अन्य जीवन रूपों की अपेक्षा तुलनात्मक रूप में अल्प होता है। मनुष्य की अवस्था के कर्म-पुद्गलों को पूर्णतः नियंत्रित करने अर्थात् आत्मा को बंदी बनाने वाले कर्मों के बन्ध को पूर्णतः एवं अंतिम रूप में वियोजित करने के उपायों का वर्णन अगले अध्याय 5 (देखिये स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 अ) में दिया जायगा। तथापि, जब आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होता है, तब वह माना जाता है कि उसके मुक्त होने पर तत्काल ही निम्नतर जीवन-कोटि की कोई दूसरी आत्मा उच्चतर कोटि को प्राप्त होती है। इसका अर्थ यह है कि एक आत्मा की मुक्ति के अनंतर अन्य आत्मायें उच्चतर जीवन कोटि को प्राप्त करती हैं। इसलिये, हम स्वयं को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org