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________________ जन्म-मरण के चक्र 43 उच्चतम बिंदु पर जाती है। इस अवस्था में आत्मा अनन्त सुख, वीर्य, ज्ञान और दर्शन प्राप्त कर लेती है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैन मत में मन को छठी इंद्रिय माना जाता है जो पुद्गल से निर्मित होता है और जो पांचो इंद्रियों से प्राप्त सूचनाओं को प्रक्रमित (Process) करता है। लेकिन इसे चेतना के ज्ञान और दर्शन घटकों के रूप नहीं मानना चाहिये। 4.5 जैनों की कण-भौतिकी सामान्यतः पुद्गल या पदार्थ में पांच वर्षों में से एक वर्ण, पांच रसों में से एक रस, दो गंधों में से एक गंध और स्पर्श के चार युग्मों में से प्रत्येक से एक स्पर्श होता है। इसका विवरण निम्न है : 1. पांच प्रकार के वर्ण : 1. काला 2. नीला 3. लाल 4. पीला और 5. सफेद 2. पांच प्रकार के रस : 1. मीठा 2. कडुआ 3. तीखा 4. खट्टा या ___ अम्लीय और 5. कषैला 3. दो प्रकार के गंध 1. सुगंध और 2. दुर्गंध 4. चार युग्मों के रूप में आठ 1. उष्ण/शीत 2. स्निग्ध/रुक्ष प्रकार के स्पर्श : (आर्द्र/शुष्क) 3. मृदु/कठोर 4. लघु/गुरु 2. चरम या अन्तिम कण (U.P.) में निम्न गुण पाये जाते हैं : 1. पांच वर्षों में से एक पांच रसों में से एक 3. दो गंधों में से एक 4. स्पर्श के दो युग्मों (आर्द्र/शुष्क; उष्ण/शीत) में से प्रत्येक से एक-एक (1+1) इस प्रकार अंतिम कणों में उपरोक्त पांच गुण पाये जाते हैं। उपरोक्त गुणों के गणितीय परिकलन के आधार पर प्राथमिक अंतिम कणों की संख्या 200 तक हो जाती है। यह बताया गया है कि आर्द्रता और शुष्कता की विभिन्न तीव्रतायें होती हैं जो पूर्णांकों के रूप में व्यक्त की जाती हैं। जब ये दोनों परस्पर में संयोग करते हैं, तो नये संयुक्त रूप बनते हैं। इस संयोग का मूल आधार यह है कि संयुक्त रूप में सूक्ष्मतम या चरम कणों में आर्द्रता .. या शुष्कता की तीव्रता एक यूनिट से अधिक होनी चाहिये। यदि उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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