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________________ अध्याय 2 आत्मा एवं कर्म- पुद्गलों का सिद्धान्त ( स्वतः सिद्ध अवधारणा 1 ) 1: "आत्मा कर्म - पुद्गलों से संदूषित स्थिति में स्वतःसिद्ध अवधारणा रहता है और यह चाहता है कि वह पूर्ण परिशुद्ध हो ।" - 2.1 स्वतः सिद्ध अवधारणा सिद्धांततः इस अवधारणा में संदूषित आत्मा की धारणा से यह ध्वनित होता है कि इस प्राणि-जगत में आत्मा दो विशिष्ट घटकों से बना हुआ है : (1) भौतिक और निर्जीव (कर्म) शरीर (2) अवशिष्ट अभौतिक और सजीव - चेतन घटक या आत्मा इसका सजीव घटक 'शुद्ध आत्मा' के रूप में व्यक्त किया जा सकता है जबकि इसका निर्जीव और भौतिक घटक (अशुद्ध घटक ) कार्मिक द्रव्य के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। (उदाहरण के लिये, सोने के अयस्क पर विचार कीजिये । इसमें धातुमल और शुद्ध सोना- दोनों होते हैं : सोने का अयस्क = धातुमल + शुद्धं सोना यहाँ धातुमल 'कार्मिक द्रव्य है और इससे भिन्न अवशिष्ट भाग 24 कैरेट सोना है जो 'शुद्ध आत्मा' के समकक्ष है । यहाँ भी कार्मिक पुद्गल, वास्तव में, वह भौतिक द्रव्य है जो आत्मा को दूषित या अशुद्ध बनाता है। इसका सामान्य शब्द 'कर्म' (अर्थात् क्रिया) से कोई संबंध नहीं है। सबसे सरल और सामान्य रूप से हम यह कह सकते हैं कि शुद्ध आत्मा में 'जीवत्व' के सभी महत्त्वपूर्ण और सकारात्मक गुण (ज्ञान, दर्शन आदि) पाये जाते हैं। जब यह कार्मिक पुद्गलों से संदूषित होता है, तब इसमें नकारात्मक प्रभाव अज्ञान, मिथ्यात्व आदि उत्पन्न होते हैं। तथापि, यह सही है कि कर्म- पुद्गलों से आत्मा का यह संदूषण स्वाभाविक या सहज नहीं है, क्योंकि आत्मा में यह सहज इच्छा रहती है कि वह इनसे पृथक्कृत ही रहे । व्यवहार में, इस सैद्धांतिक धारणा से यह ध्वनित होता है कि संसारी आत्मा का उद्देश्य 'आत्मा' का शुद्धिकरण है अथवा 'कर्मपुद्गलों पर विजय पाना है। वस्तुतः कर्म - पुद्गल सभी प्रकार के दुःख, कष्ट आदि के मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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