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________________ xvii जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला नहीं है। श्वेताम्बर जैनों के अनुसार, इन आगमों की उच्चतर संख्या 45 तक है जब कि दिगम्बरों के अनुसार, यह संख्या 26 तक सीमित है। परिशिष्ट 3 अ में आगमों के वे मूल उद्धरण दिये गये हैं जो उपरोक्त अवधारणाओं के आधार हैं। साथ ही, परिशिष्ट 3 ब में कुछ महत्त्वपूर्ण उद्धरण दिये गये हैं जिनका इस पुस्तक में स्थान-स्थान पर उल्लेख किया गया है। परिशिष्ट 4 में आत्म-शुद्धि के चरणों की महत्त्वपूर्ण अवधारणा को एक सरल सांप-सीढी के मनोरंजक क्रीड़ा-निदर्शन के माध्यम से समझाया गया है। पुस्तक के अंत में संदर्भ-ग्रंथ सूची एवं अनुक्रमणिका भी दी गई है। जो लोग जैन धर्म के सिद्धान्तों को सीधे ही आगमिक स्रोतों से जानना चाहते हैं, उन्हें आचार्य उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र पढ़ना चाहिये। इसके अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध हैं। इसके लिये कृपया इस पुस्तक की संदर्भ-ग्रंथ सूची देखें। फिर भी, इसके प्राथमिक अध्ययन के समय पाठक को जैन धर्म के व्यापक वर्गीकरण, उप-वर्गीकरण आदि को गंभीरता से नहीं लेना चाहिये क्योंकि ऐसा करने पर वह जैन-सिद्धान्तों के सार को जानने के बदले अन्य विवरणों में भटक जायगा। ये व्यापक रूपरेखायें अनेक सदियों तक महत्त्वपूर्ण रहीं, क्योंकि उन दिनों मूलभूत सिद्धान्त, सामान्यतः, मौखिक रूप मे ही संचारित किये जाते थे। ___ मै हैरी ट्रिकेट के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहता हूं जिन्होंने इस पुस्तक के विविध प्रारूपों को पढ़ा और रचनात्मक सुझाव दिये। मैं जैन समाज, यूरोप के अध्यक्ष डा. नटूभाई शाह, प्रो. पी. एस. जैनी, गुरुदेव श्री चित्रभानु, गणेश ललवानी, पॉल मारेट, विनोद कपासी, नाइजेल स्मीटन, अल्लन वाटकिन्स, विजय जैन, टिम हैन्सवर्थ, और अपने स्वर्गीय मित्र कुंदन जोगेटर का भी आभारी हूं। मेरी पत्नी सौ. पवन, मेरे बच्चे-बेला, हेमंत और नीता तथा लीड्स जैन ग्रुप के सदस्यों के सुझावों से भी मैं बहुत लाभान्वित हुआ हूँ। इन सभी का मैं आभारी हूँ। इस पुस्तक में मैंने जैन धर्म की विविध धारणाओं को, जहां तक संभव हो सका है, वस्तुनिष्ठ दृष्टि से आधुनिक विज्ञान के आधार पर पुनर्व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी कठिनाई यह रही है कि जैन पारिभाषिक शब्द संस्कृत और प्राकृत भाषाओं पर आधारित हैं जबकि आधुनिक विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली यूनानी भाषा पर आधारित है। मैं यह मानता हूँ कि विज्ञान के एक सीमित क्षेत्र का विद्यार्थी अनेक वर्षों के श्रम के बाद शोध-उपाधि को प्राप्त करता है। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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