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परिशिष्ट 2
जैन आगम ग्रंथ (पवित्र धर्म ग्रंथ )
प्रत्येक धर्म पद्धति की आचार-विचार-संहिता होती है जिसे उसके संस्थापक अपने अनुभव व ज्ञान से संचरण और पालन की सुविधा के लिए, पवित्र ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रंथों को श्रुति श्रुत या आगम कहते हैं । जैन धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। इसके आगमों का मूल स्रोत तीर्थंकर की वाणी है ।
यह विश्वास किया जाता है कि तीर्थंकरों के उपदेश दिव्यध्वनि / दिव्यभाषा के रूप में हमें प्राप्त होते हैं (दिगम्बरों के अनुसार यह दिव्यध्वनि उपदेशों के अंतरंग अर्थ को संचारित करती है और उसे बाद में, उनके मुख्य गणधर शिष्य आगमों के रूप में निबद्ध करते हैं। इसके विपर्यास में, श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार, तीर्थकर एक दिव्य मानव भाषा में उपदेश देते हैं) । सामान्यतः गणधरों का कार्य तीर्थंकरों के उपदेशों का संकलन, संपादन एवं जनभाषा में रूपांतरण या अनुवाद करना है । फलतः आगम ग्रंथों को शाब्दिक रूप में नहीं लेना चाहिये, अपितु उनके सम्बन्ध में आत्म-विश्लेषण एवं संकलन की धारणा को ध्यान में रखना चाहिये ।
प. 2.1 प्रमुख आगम ग्रंथ
सामान्यतः जैनों के आगम ग्रंथो की संख्या 60 है। इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया है :
वर्ग-1, पूर्व : 14
वर्ग-2. अंग (प्राथमिक आगम ग्रंथ ) : 12
वर्ग-3. अंग - बाह्य ( द्वितीयक आगम ग्रंथ) : 34
इन 60 ग्रंथो में, वर्तमान में केवल 45 ही उपलब्ध हैं क्योंकि 14 पूर्व ग्रंथ लुप्त हो गये हैं और एक अंग ग्रंथ- दृष्टिवाद भी लुप्त माना जाता है। इन ग्रंथों के नाम और पांच कोटियां मुनि नथमल जी ने 'दसवेयालिय' की भूमिका में दिये हैं । सारणी प.2.1 में इन ग्रंथों की रूपरेखा कुछ विवरणों के साथ दी गई है । सारणी प. 2. 2. में वर्ग 3 के उपवर्गों की जानकारी दी गई है। जैनों के बारह प्राथमिक अंग ग्रंथों में महावीर के गणधर गौतम और सुधर्मा स्वामी (परिशिष्ट 1 देखिये ) का प्रमुख योगदान है। लेकिन इनके मौखिक संचरण की परम्परा बहुत समय तक चलती रही।
इन आगमों का टीकाओं के साथ लेखन लगभग 450 ई. (पांचवी सदी) से प्रारम्भ हुआ । आचार्य देवर्धिगणि की प्रेरणा से बलभी में (तीसरी या
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