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________________ 128 3. कार्मन - कण और ज्ञान का आवरण अपने विचारों में बुद्धि-संगतता लाने के लिये हमें जैन तर्कशास्त्र की परख करनी चाहिये। जैन सापेक्ष कथन (स्याद्वाद) के सिद्धान्त में विश्वास करता है, जिससे प्रत्येक वस्तु - स्वरूप विशिष्ट समय पर होने वाले हमारे ज्ञान पर आधारित होता है और जब तक आत्मा 'पूर्णता को प्राप्त नहीं होता' अर्थात् उसमें जैनत्व का गुण पूर्णतः विकसित नहीं होता, हमारा ज्ञान यथार्थ नहीं होता। कर्म - पुद्गलों से संबद्ध आत्मा पेट्रोल की तुलना में अपरिष्कृत कच्चे तेल के समान है। यह कच्चा तेल जितना परिष्कृत होगा, आत्मा की शुद्धि और सामर्थ्य भी उतना ही अधिक होगा । जैनधर्म की वैज्ञानिक आधारशिला जैनधर्म में विचारों में अनेकांतवाद के अनुसरण की अनुशंसा की गई है । यह सिद्धान्त वैज्ञानिक अन्वेषण में भी स्पष्टतः प्रयुक्त होता है। उदाहरणार्थ, कुछ समय पूर्व लघुतम कण प्रोटॉन था, लेकिन आज यह क्वार्क है, इत्यादि । इसके साथ ही, जैन तर्कशास्त्र यह भी बतलाता है कि हमें अपने विचारों में अनेकांतवाद के समग्र सिद्धान्त के आधार पर सापेक्षवादी होना चाहिये । इस दृष्टि से पूर्व में दिये गये छ: अंधे और हाथी का उदाहरण ध्यान में दीजिये। जो व्यक्ति हाथी की पूंछ को छूता है, वह हाथी को रस्सी के समान कहता है । हाथी के पैर छूनेवाला उसे एक खंभे के समान कहता है । इस प्रकार जो जैसा अनुभव करता है, वह वैसा ही बताता है। वस्तुतः, व्यक्ति को यह चाहिये कि वह जीवन और पदार्थ के सभी पक्षों की ओर देखे । हाथी और अंधे की इस कहानी को जे. जी. साक्स ( 1816 - 77 ) ने अपनी एक कविता के माध्यम से पश्चिम में लोकप्रियता प्रदान की थी। 4. (संसारी) आत्मा के शुद्धिकरण का मार्ग संक्षेप में, जैन धर्म के अनुसार, काल, आकाश, जीव और अजीव (पुद्गल) द्रव्य सदैव वर्तमान रहते हैं और सदैव रहेंगें। इसी प्रकार विश्व स्वचालित एवं स्व-नियंत्रित है। जब तक कार्मन पूर्णतः निर्झरित न हो जाये, जीवन मुख्यतः कार्मनों से ही नियंत्रित होता है। ये कार्मन कैसे निर्झरित हो सकते हैं ? इसके लिये ही आत्मा के शुद्धिकरण का मार्ग निर्देशित किया गया है । यह मार्ग सरल नहीं है, क्योकि जैन धर्म यह विश्वास करता है कि आत्मा के साथ संलग्न कर्म - पुद्गल (समय के पूर्व ) केवल तपस्या से ही निर्झरित होते हैं, अन्यथा, व्यक्तिगत कार्मिक कंप्यूटर अपना काम करता ही रहेगा। यह आसक्ति की तुलना में आत्म-संयम का मार्ग निर्देशित करता है । जब आइन्स्टीन ने धर्म के सम्बन्ध में अपनी धारणा परिभाषित की, तब उसने कहा : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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