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1. जॉन की मृत्यु होगी, 2. क्योंकि वह मनुष्य है, 3. जैसे, टॉम, डिक और हैरी,
4. चूंकि उनकी मृत्यु हुई, 5. अतः जॉन की भी मृत्यु होगी,
जब पंचपदी के कोई भी अवयव हमारे निरीक्षण के अनुरूप नहीं होते, तब यह पंचपदी आभासी कहलाती है।
9.3 सापेक्षवाद या पारिस्थितिक कथन का सिद्धान्त या स्याद्वाद
जैन परम्परा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्रीय सिद्धान्त 'सापेक्ष कथन' का सिद्धान्त है जिसे 'स्याद्वाद' कहते हैं। इसमें निष्कर्ष या विषय-वस्तु को सात नयों के आधार पर परीक्षित किया जाता है जिसे 'सप्तभंगी नय' कहते हैं । इस सिद्धान्त के नामकरण में 'स्यात्' उपसर्ग होता है जिसका अर्थ है 'अपेक्षा विशेष से' । इसका अर्थ 'शायद' (संदेह और अनिश्चय) के रूप में नहीं होता। इसके सात नय निम्न हैं:
1. यह है (एक नय की अपेक्षा);
2. यह नहीं है;
3. यह है और यह नहीं है;
4. यह अवक्तव्य है;
-
यह है और अवक्तव्य है;
5.
6. यह नहीं है और अवक्तव्य है;
7. यह है, यह नहीं है और यह अवक्तव्य है 1
जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
यहां यह ध्यान देने की बात है कि इन सभी कथनों में अनिश्चितता का कुछ अंश है और इसलिये इनमें से प्रत्येक कथन को 'नय' कह सकते हैं, क्योकि यह किसी वस्तु के एक पक्ष को प्रतिविंबित करता है। यहां कथन 1. यातायात - सूचक प्रकाश - दीप समुच्चय के 'हरे रंग के रूप में माना जा सकता है । कथन 2 को 'लाल' रंग के रूप में माना जा सकता है। इन कथनों का विशिष्ट बिन्दु कथन 4 है जो अवक्तव्यत्व या अनिर्धारकत्व की संभावना को सूचित करता है। अन्य सभी कथन 3, 5, 6 व 7, कथन 1 और 2 के साथ कथन 4 के समुच्चय को व्यक्त करते हैं। यहां 'स्यात् शब्द' का 'शायद' के रूप में अनुवाद नहीं है। इसका सही अनुवाद 'एक नय या अपेक्षा से अधिक उपयुक्त है।
=
1. + = संभवतः, यह है (एक नय की अपेक्षा)
2.
संभवतः, यह नहीं है
3.
संभवतः, यह है और यह नहीं है
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