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________________ 96 जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला कर पाता। यह तो केवल अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में पहुँचनें पर ही होता है जब व्यक्ति मोक्ष-प्राप्ति के अंतिम चरण में पहुँचने के प्रति निश्चित हो जाता है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति चौथे - शुक्ल ध्यान या शुद्ध समाधि में लवलीन हो जाये। यह चौथा ध्यान चार प्रकार का होता है : 1. पृथक्त्ववितर्क : छह द्रव्यों की प्रकृति व उनके बहुपक्षीय रूप पर ध्यान लगाना 2. एकत्ववितर्क : किसी भी एक द्रव्य की प्रकृति और उसके बहुपक्षीय रूप पर ध्यान लगाना 3. सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति : सूक्ष्म क्रियाओं की अनुभवातीत अवस्था 4. व्युपरत क्रिया-निवृत्ति : परम अक्रियता की अनुभवातीत अवस्था इनमें पहले दो शुक्ल ध्यान आठवें, नौवें, व दसवें गुणस्थान में कार्यकारी होते हैं जहां द्वितीयक कषायें (नो-कषाय) और अतिसूक्ष्म मुख्य कषायें क्रमश: या तो उपशांत हो जाती हैं या नष्ट हो जाती हैं (खंड 7.4 देखिये)। इनके अंत से आत्मा इतना वीर्य प्राप्त कर लेता है कि वह क्षपक श्रेणी के गुणस्थानों में जा सकता है और प्रत्येक चरण पर सूक्ष्म कषायों को उपशमित करने के स्थान पर वियोजित कर सकता है। इस प्रकार, ग्यारहवां गुणस्थान पार कर आत्मा सीधे ही बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है। इस चरण में आत्मा का शुद्धिकरण उच्चतम अवस्था में होता है और वह ‘सयोग केवली' नामक तेरहवें गुणस्थान में तत्काल पहुँच जाता है। मृत्यु के कुछ समय पूर्व आत्मा शुक्ल ध्यान के अंतिम दो रूपों का क्रमशः अभ्यास करता है, जिससे चौदहवें गुणस्थान में पहुँचनें की अनुत्क्रमणीय प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। जैसा पूर्व में खंड 7.5 में बताया गया है कि सांसारिक या भौतिक मृत्यु के पूर्व चौदहवां गुणस्थान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। शुक्ल ध्यान की तीसरी अवस्था में जीव श्वासोच्छवास, हृदय-कंपन आदि के समान जीवन-नियंत्रक क्रियाओं को छोड़कर मन, वचन और काय की समस्त क्रियाओं से निवृत्त हो जाता है और शुक्ल ध्यान की चौथी अवस्था में ये नियंत्रक क्रियायें भी नहीं रहती और आत्मा निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। हमनें यहां केवल दो सकारात्मक ध्यानों पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया है। इनसे अतिरिक्त, दो नकारात्मक मानसिक दशा वाले ध्यान भी हैं। एक को आर्त-ध्यान कहते हैं जिसमें प्रिय के वियोग, अप्रिय के संयोग या संपत्ति की हानि आदि के समान अरुचिकर प्रसंगों के समय चिन्तन या ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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