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________________ है। जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला 7. आस्रव : हमें इस पर विचार करना चाहिये कि कर्मों का आस्रव किस प्रकार होता है और हम दूर रह कर इसे कैसे अनुभव करें या अवलोकित करें ? 8. संवर (कर्म-कवच) : कर्मों का आस्रव कैसे रोका जा सकता है ? इस आस्रव-द्वार को कैसे अवरुद्ध किया जा सकता है जब कषायरूपी तूफान तेजी से आने वाला हो ? 9. निर्जरा (संपूर्ण कर्म-क्षय) : आत्मा से सहचरित कर्म-पुदगलों को कैसे दूर किया जा सकता है जिससे आत्मा शुद्ध रूप को प्राप्त कर सके अर्थात् वह स्थायी तात्त्विक अवस्था (मोक्ष) को प्राप्त कर सके ? 10. लोक : यह त्रिस्तरीय विश्व अनादि है, किसी के द्वारा निर्मित नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी दुःख-विमुक्ति के लिये स्वयं भी उत्तरदायी है, क्योंकि इस प्रक्रिया में सहायता के लिए कोई सर्वशक्तिमान् ईश्वर नहीं है। 11. बोधिदुर्लभ : सम्यक-ज्ञान या बोधि कठिनाई से ही प्राप्त होता है। यह केवल मनुष्य जीवन ही है जिसे सम्यक-बोधि प्राप्त करने एवं मोक्ष-प्राप्ति के लिये विशेषाधिकार प्राप्त है। 12. धर्म-स्वाख्यातत्त्व या जैन-पथ की सत्यता : जैन तीर्थंकरों के उपदेश ही सत्य हैं जिनके माध्यम से व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जानता है और अनंत शांति के लक्ष्य को प्राप्त करता है। 5. परीषह-जय : 'परीषह' शब्द का अर्थ स्वयं-उत्पन्न कठिनाइयां हैं। ये कठिनाइयां भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, उपहास, कीट-काटन आदि के रूप में बीस या बाइस प्रकार की हैं। इन कठिनाइयों को अच्छी तरह शांतिपूर्वक सहन करने के उपायों पर विचार करना और अभ्यास करना परीषह-जय है। सारणी 8.1 में विभिन्न गुणस्थानों में किये जाने वाले व्रत-अभ्यासों को दिया गया है। यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि तीन गुप्ति, पांच समिति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षाओं आदि का अभ्यास श्रावक के लिये केवल मार्गदर्शक है जो शुद्धिकरण के संभावित उपायों के विषय में अंतर्दृष्टि देता है और सामान्यतः उनका अभ्यास नियमित रूप से नहीं किया जाता, और यदि किया भी जाता है, तो परिपूर्णता के साथ नहीं। श्रावक इनमे से कुछ का ही अभ्यास (जैसे विशेष दिनों में उपवास आदि) कर सकता है। फिर भी, यह आशा की जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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