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________________ अध्याय 8 शुद्धिकरण के उपाय 8.1 विषय प्रवेश सातवें अध्याय में हमने कर्म-बंध के पांच कारकों- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- के प्रतिकारकों के रूप में तपस्याओं का उल्लेख किया है। वस्तुतः, आचार्य उमास्वाति के अनुसार, (देखिये परिशिष्ट 3 अ, उद्धरण 8.1) 'तपस्या' शब्द का निहितार्थ है : गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और सम्यक्-चारित्र का विकास इस प्रकार कर्म-बंध के पांच कारकों के लिये छह प्रतिकारक हैं जो 1. कर्मों के आस्रव को रोकने के लिये तथा 2. कर्म-पुदगलों के आत्मा से वियोजन या निर्जरा के लिये उत्तरदायी होते हैं। स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 स के विवेचन के लिये, इन छहों प्रतिकारकों को 'तपस्या' माना जा सकता है। ये प्रतिकारक कर्म-क्षेत्र-कवच (संवर) भी कहलाते हैं। अब हम चौदह गुणस्थानों या शुद्धिकरण चरणों के संदर्भ में इन छहों प्रतिकारकों का विस्तृत विवेचन करेंगें। जब मूलभूत आधार बन जाता है, तब ये छह प्रतिकारक जीव को छठे गुणस्थान तक ले जाते हैं। यहां ध्यान देने योग्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उपरोक्त प्रतिकारक मुख्यतः उपवास द्वारा शरीर-शुद्धि, मौन साधना द्वारा वचन-नियंत्रण और ध्यान के माध्यम से मन को शांत करते हैं। 8.2 सम्यक्त्व या अंतर्दर्शन के आठ अंग (या घटक) या गुण जब मनुष्य को अविरत सम्यक-दृष्टि नामक चौथा गुणस्थान प्राप्त हो जाता है, उसके सम्यक्त्व के आठ अंग प्रकट होते हैं। इसके बाद वह शुद्धिकरण-चरण की धुरी पर उच्चतर गुणस्थानों की ओर बढ़ता है। इनमें चार अंग तो नकारात्मक हैं, जो ये निम्न हैं : 1. निःशंकित जैन शिक्षाओं और उपदेशों के प्रति संशय/शंकाओं से मुक्ति 2. निःकांक्षित भविष्य की आशाओं/आकांक्षाओं से मुक्ति 3. निर्विचिकित्सा विरोधी धर्मों के बीच विवेकशीलता के कारण उत्पन्न घृणा से मुक्ति 4. अमूढ़ दृष्टि देव, गुरु व धार्मिक क्रियाओं से सम्बन्धित मिथ्या विश्वासों से मुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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