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________________ आत्म-1 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. - विजय का मार्ग 10. 11. 12. मिश्र / सम्यक् मिथ्यात्व अविरत सम्यक् दृष्टि देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म साम्पराय उपशांत मोह क्षीण कषाय 13. सयोग केवली 14. अयोग केवली : भ्रान्त एवं प्रबुद्ध दृष्टिकोण का मिश्रण : अविरत प्रबुद्ध दृष्टिकोण : अंशतः विरति के साथ प्रबुद्ध दृष्टिकोण : प्रमाद - विरति के साथ प्रबुद्ध दृष्टिकोण : प्रमादरहित संयम : अपूर्व परिणामों के साथ संयम : समान और मृदु परिणामों के साथ संयम • सूक्ष्म लोभ के साथ संयम : उपशमित लोभ के साथ संयम : लोभ क्षय के साथ संयम : क्रियाशील सर्वज्ञता : अक्रिय सर्वज्ञता Jain Education International टिप्पणियां 1. पी. एस. जैनी पेज 140-41 "वीर्य और कर्म की निरंतर चलनेवाली अन्योन्यक्रियाओं की अस्थिरता के कारण", कुछ अनुभव या अनुभूतियां (जैसे जिन या उसकी प्रतिमा के दर्शन, जैन - शिक्षा या उपदेशों का श्रवण या पूर्व-जन्म की स्मृति) मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति की अव्यक्त क्षमता ( भव्यत्व) को व्यक्त कर सकती हैं और मोक्षमार्ग पर जाने की प्रक्रिया को प्रारंभ कर सकती हैं जिससे अंत में मोक्ष प्राप्त हो सके।" 2. पी. एस. जैनी; पेज 147 87 "पूर्व में मनुष्य अपने शरीर, परिग्रह, अवस्था आदि जीवन के बाह्य चिह्नों से ही स्वयं को पहचानता था। इस स्थिति में वह बहिरात्मा की दशा में था जो अपनी पहिचान बाह्य माध्यमों में ही देखता था जिनमें चेतना प्रमुख थी जो केवल कर्म फल के प्रति ही जागरूक रहती है। यह स्थिति इस मिथ्या धारणा पर निर्भर करती है कि व्यक्ति दूसरे जीवों में परिवर्तन लाने के लिये कर्ता बन जाता है ........ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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