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________________ जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला कीजिये जहां हमने यह बताया है कि मिथ्या दृष्टिकोण या मिथ्यात्व 3 1/2 जैन - विश्व कालचक्र ( JTC) तक रह सकता है जब कि कोई भी कषाय 2 जैन विश्व कालचक्र के बराबर समय तक रहती है। इस आधार पर हम मिथ्यात्व को अभिलक्षणित करने के लिये 0-7 की नाम - मात्रिक कोटि या माप दे सकते है। इसी बात को आगे बढाते हुए हम 82 1. अविरति / असंयम को अधिकतम 4 की कोटि आवंटित कर सकते हैं 2. अप्रमाद को अधिकतम 4 की कोटि आवंटित कर सकते हैं 3. द्वितीयक कषायों को अधिकतम 4 की कोटि आवंटित कर सकते हैं 4. क्रियाओं (योग) को अधिकतम 1 की कोटि आवंटित कर सकते हैं इस प्रकार पहले गुणस्थान में कर्म का घनत्व 36 इकाई होगा । इसी प्रकार, अन्य गुणस्थानों के लिये परिकलन करने पर, हम प्रत्येक के लिये कार्मिक घनत्व का आवंटन कर सकते हैं जिसे सारणी 7.4 में कुछ स्थितियों के साथ प्रस्तुत किया गया है । तथापि, यह ध्यान में रखना चाहिये कि ये माप और मापांक पूर्णतः स्वैच्छिक हैं और इनका उपयोग केवल यही है कि हम आध्यात्मिक विकास की प्रगति का कुछ अन्तर्दर्शन कर सकें । चित्र 7.3 में किञ्चित् सूक्ष्म पैमाने पर सारणी 7.4 का योजनाबद्ध निरूपण किया गया है । उसमें x - अक्ष पर कर्म --बंध के कारक हैं और y-अक्ष पर आध्यात्मिक शुद्धिकरण के स्तर हैं । यहाँ कार्मिक घनत्व को नकारात्मक रूप में समझना चाहिये, अर्थात् जब कार्मिक घनत्व कम होता है, तब आध्यात्मिक शुद्धिकरण अधिक होता है अर्थात् चारों कषायों का प्रभाव कम होता है : आध्यात्मिक शुद्धिकरण ० 1 / कार्मिक घनत्व चित्र 7.3 में कार्मिक घनत्व को y - अक्ष के समानान्तर 2- अक्ष से निरूपित किया गया है। छठवें गुणस्थान में संयम की पूर्णता होती है और वहां चारों कषायों की कोटियां मात्र आठ हो जाती हैं। B से B' एवं C से C' रेखाओं का अनुसरण करने पर, हम देखते हैं कि प्रमाद और क्रोध की कोटियां तो शून्य हो गई हैं पर अन्य तीन प्रमुख कषायें अब भी विभिन्न कोटियों में बनी हुई हैं। चित्र 7.3 में यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्येक कर्म-बंध के कारण के लिये पृथक्-पृथक् सीमायें हैं, क्योंकि मिथ्यात्व और कषाय अथवा चार कषायों एवं नौ नो-कषायों के बीच कोई संततता नहीं है। कर्म-बंध कारकों की प्रत्येक क्रिया का समापन तब चालू हो सकता है जब सीमा रेखा आनत हो जाती है अर्थात् जब त्रिकोणी आकृतियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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