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________________ आत्म-विजय का मार्ग 75 पर प्रारम्भ में सभी प्राणी होते हैं। इस चरण पर सभी प्राणियों और मनुष्यों में भी कर्म-पुद्गलों का घनत्व उच्चतम होता हैं। यह घनत्व उच्चतर चरणों पर जाते-जाते कम होता जाता है और चौदहवें चरण पर शून्य हो जाता है। इस प्रकार, इस स्थिति के विपर्यास या व्युत्क्रम में, हम यह मान सकते हैं कि शुद्धिकरण धुरी कार्मिक घनत्व की धुरी के समान है जिसमे चौदह बिंदु होते हैं और यह धुरी अविरत बनी रहती है (यह धुरी शुद्धिकरण-धुरी से विपरीत दिशा में होगी)। __कार्मिक वियोजन की गतिशील प्रक्रिया को समझने के लिये यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैसे-जैसे कर्मों की निर्जरा (या वियोजन) होती है, सशरीरी आत्मा की आन्तरिक शक्ति वर्धमान होती है जो आध्यात्मिक विकास की गति की उत्तरोत्तर वृद्धि में सहायक होती है। इस स्थिति में यह भी माना जाता है कि आगे बढ़ने पर कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो जाता है और इससे आत्मा के वीर्य और ज्ञान के घटकों का आवरण मुक्त होता है जिससे आत्मा अपने स्वरूप के अन्वेषण में संलग्न होती है। इस दिशा में एक अन्य ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्म-पुद्गलों का प्रभाव सर्वप्रथम तो पूर्णतः विलोपित होने के बदले केवल प्रायः दमित होता है। इसके साथ ही, उत्तरोत्तर चरणों में कर्मों का बंध पर्याप्त सीमित होता जाता है और पुराने कर्मों की मात्रा (वियोजन के कारण) कम होती जाती है। यही नहीं, प्रायः सभी उत्तरवर्ती चरणों में चारों कषायों – क्रोध, मान, माया एवं लोभ की कोटि क्रमशः दुर्बल होती जाती है। इन चारों कषायों की पांच कोटियों को अध्याय 5 में विवेचित किया जा चुका है। लेकिन हमारा समग्र उद्देश्य यह है कि हम स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 अ में दिये गये कर्म-बंध के पांचों कारकों को जड़ से उन्मूलित करें। 7.3 पहले चार चरण : पहले चार गुणस्थान चित्र 7.2 में दिये गये पहले चार गुणस्थान क्रमशः निम्न हैं : 1. मिथ्या दर्शन (वस्तु तत्त्व के विषय में विपरीत या भ्रांत दृष्टिकोण) 2. सासादन (वस्तु-तत्त्व के विषय में अस्पष्ट अभ्रांत दृष्टिकोण) 3. मिश्र/सम्यक-मिथ्यात्व (भ्रांत एवं अभ्रांत दृष्टिकोणों का मिश्रण) 4. अविरत-सम्यक्-दृष्टि (असंयत एवं प्रबुद्ध दृष्टिकोण) 7.3.1 प्रथम चार चरणों की परिभाषा और आंतरिक गति उपरोक्त सीढ़ी (चित्र 7.2) का पहला चरण सभी जीवों में पाया जाता है। यह चरण वस्तुतत्त्व के विषय में भ्रांत या मिथ्या दृष्टिकोण या मिथ्या दर्शन कहलाता है। प्रारम्भ में, प्रत्येक जीव पूर्ण अज्ञान के इस चरण में होता है अर्थात् इस चरण में उसके चारों कषायों की कोटि अधिकतम या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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