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________________ ८२. वाला है | लोकाकाश अनि है । इसका आदि अत नहीं | इसे यों समझा जा सकता है-कटि के दोनों भागों पर दोनों हाथ रखकर और दोनों पैरों को फैलाकर खडे. पुरूष से समान लोक का आकार है । नीचे के भाग में सावन, नाभिप्रदेश में मनुष्य लोक, अपर के भाग में स्वर्ग लोक एवं तक प्रदेश में मोक्ष स्थान है । समस्त कर्मों को क्षय करने वाला जीव निर्भार होकर मन करता है पर ंतु वह लोकाकाश तक ही गमन कर सकता है क्योंकि धर्म द्रव्य गमन में यहीं तक सहायक बन सकता है । यदि दो द्रव्य न होते तो फिर आत्मा कहाँ तक गमन का कहाँ स्थित होती यह एक प्रश्न बड़ा हो जात और फिर मुक्तात्माओं का मोक्ष में स्थिर शंकास्पद या विवादास्पद बन जाता | धर्म और अब य के अस्तित्व एवं गति आदि के कारण ही अखण्ड होते हुए भी उसके दो रूप माने गये हैं । जीव की गति कहाँ तक होगी यह भी इसी से निश्चित हो सका । पुद्गल:- जैन दर्शन में स्थूल महास्थूल समस्त रुपी पदार्थों को पुद्गल की सज्ञा दी गई है । यों कहा जा सकता है कि हम जो देखते हैं, खाते हैं आदि सभी पदार्थ पुद्गल हैं । शास्त्रकारो ने पुद्गल को रुप, रस, गंध और स्पर्शवाला कहा है । पुद्गल' अर्थात 'पुर' एवं 'गर्ल' दो धातुओं के सौंयोग से निर्मित यह शब्द सिद्ध करता है कि जहाँ मिलन या जुडना एवं खिर जाना या पृथक होना दोनों क्रियाएं होती हैं वही पुद्गल द्रव्य है । अर्थात अणुस घात रुप छोटे बड़े पदार्थों में होनि या वृद्धि होती रहती है परमाणु में विलय या पृथकत्व की क्रिया इसी के कारण हैं । परमाणु पुद्गल का मूलतत्व है । उनका सयोजन स्कन्ध कहलाता है । समस्त छह द्रव्यों में पुद्गल ही एकमात्र मूर्तिक द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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