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________________ ६९ ऊपर किये गये विवेचन यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के कृत्य जो ऐक द्रव्यभूत वस्तु है - विशेष सयोग के कारण आत्मा से जुड़कर उसे दूषित करते हैं और तदनरूप वह सुख-दुःख आदि । पाता है । इससे यह समझना होगा कि हम मनुष्य हैं । सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में हमारी सरचना हुई है । बुद्धि का वरदान हमें विवेक-ज्ञान प्रदान करता है । सन् असत् का भेद हम कर सकते - अतः इस ज्ञान के द्वारा अशुभ कर्मों के आस्तव से निरतर बचने का प्रयास करें । हम बुद्धि की शुद्धि के साथ सत्कर्मपरायण बनकर आत्मकल्याण की ओर आरूढ़ हों ऐसा निरंतर प्रयास करना चाहिए । ये कर्म ठीक उस बीज की भाँति हैं जो तत्काल न उगकर समय, परिस्थित एव वातावरण के संसर्ग में पनपते हैं वैसे ही कर्म भी अपना फल देते हैं । यही कारण है की कभी - कभी पाप करने वाला में सुखी दिखाई देता है और पुण्य - प्रवृति में लगा हुआ व्यक्ति हमें दुखी दिखाई देता हैं । कारण कि वर्तमान पापबध करते हुए भी वह अपने सचित पुण्य कर्मों के उदय (फल) के कारण दुख पाता है दूसरा ठीक उससे विपरीत फल एक बात निश्चित समझनी होगी कि प्रत्येक कर्म उदय में आकर परिणाम देगा ही उसका क्षय भी कुछ कर्म ऐसे भी होते है जो उदय में आकर भी फल दिए बिना नष्ट हो जाते हैं ऐसे उदय का 'प्रदेशादय' कहा गया है होना तभी संभव है जब साधक अपने तप के बल से निर्ज करे । ताकि कर्म नष्ट हो जाये - फल हीन बन ऐसे कर्मों की निर्जरा ही मोक्ष मार्ग की ओर ले जातीं है । पाता है । । Jain Education International जो बंधा है वह निश्चित है । कर्म की अवस्थायें : कम के इस दर्शन को जैनधर्म में बड़ी सूक्ष्मता से, गहराई से एव कसौटी पर कसकर देखा गया है । सामान्य व्यक्ति जिज्ञासु, मुमुक्षु सभी इसे जान सके इस हेतु प्रथम For Private & Personal Use Only यह उनकी जाये । www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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