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________________ ज्ञान के प्रदीप से अंध कार को दूर करना होगा । इस आत्मलोक में प्रकाश ही प्रकाश होगा-प्रकाश का लहराता सागर होगा । यहीं साधना की पराकाष्ठा या पूता होगी जहां बाह्य नहीं-आंतरिक आनद का अनुभव होगा । क्रमशः इस संसार और उसके संबन्धों से सिमिट कर अपने में लीन होना ही योग या ध्यान है | उस ध्यान में चितवन की क्रिया ही प्रेक्षा है। जैनधर्म का कर्मसिद्धांत कर्म-सिद्धांत या कर्मवाद जैनदर्शन का प्राण सिद्धांत है | कम स्वाद्वाद की नीव पर ही इसकी इमारत अवस्थित है। कर्म का यह सिद्वांत जैन दर्शन की नौज्ञानिकता पर प्रकाश डालता है और पुष्ट भी करता है । प्रत्येक जीव की स्वतत्र सत्ता एव कमठता इसी से सिद्ध हो सकती है । मात्र किंचिम द्वेश से इसे अनात्मवादी या नास्तिक दर्शन कहने वाले थे। स्वतः उत्तर मिल जाता है। सामान्यतः कम अर्थात कार्य का परिचायक शब्द है । हम जोभी कार्य करते हैं वे सभी कम के अतर्गत समाहित है। हम जो जैसा कर्म करेगे पैसा फल भोगना होगा-ऐसी मान्यता प्रायः सभी दार्शनिकों ने स्वीकार की है । हमारी ममस्त प्रवृत्तियों के मूल में प्रेरणास्वरूप या निमित्त स्वरुप रागद्वेष रहते हैं । ये ही संस्काररुप स्थाई वनकर परिणाम देते है और 'संसार' बनाते रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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