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के प्रति निर्मोह भाव धारण करने लगता है । संगर का और लोगों का साथ छूटने पर वह निरर्थक चिन्ता से वचता है । अपने आप में लीन होने लगता है ।
५- अन्यत्वानुप्रक्षा : साधना पथ का पथिक जब इस शरीर से निर्मोही बन कर उसे अनित्य और अशरण मानने लगता है । जब यह वास्तविक अन्तःप्राण को देखने लगता है तब उसमें अन्यत्व भाव - बोध अंकुरित होने लाता है । दूसरे शब्दों में कहें तो वह भेद विज्ञान- दृष्टि पर स्थिर होने लगता है । वह शरीर और आत्मा के पृथकत्व बोध को प्राप्त होता है | आत्मा शरीर के द्वैतभाव को बह समझ लेता है । मैं शरीर नहीं हू यह दृष्टि उनकी विकसित होनी है । यों कहें कि वह अपने स्वरूप के सत्य को जानने लगता है । उसके ज्ञान का तीसरा नेत्र खुलने याता है । जब वह स्थूल शरीर के भेद से वह आत्मा के सूक्ष्म शरीर का पृथकत्व जान लेता है तब वह स्वयं को अतीन्द्रिय अनुभव करने लगता है । वह ज्ञाता द्रष्टा की भूमिका में प्रस्थापित होने लगता है । नित्यानित्य के भेद को जानते हुए शरीर की अनित्यता और आत्मा की नित्यता को समझ लेता है । जब शरीर का इस आत्मा से संबन्ध ही नहीं है ऐसा एकत्वपना दृढ़ बनता है, तत्र मो मात्रा से हटकर वह धर्मसाधना में दृढ़ होता है । उसकी कुंडलिनी जागृत बनती है ।
६ - अशुचित्वानुप्रक्षा : मनुष्य को यदि सबसे अधिक मोह और चिता होती है तो अपने शरीर से | वह शरीर को सुंदर पुष्ट बनाने के लिये उसीमय बना रहता है । मै सुंदर हू ं, सुंदर दिखाई दू' और लोग मेरी सुन्दरता की प्रसंशा करें यहीं उसकी महत्वाकांक्षा रहती है । सुन्दरता और शक्ति का मद उसे चढ़ता है । शरीर सौदर्य द्वा । वह वासनामय बन कर भोगविलास में फँसता है । व्यभि
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