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________________ “करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जानि के सिल पर परत निशान ।। इन भावनाओं या अनुप्रेक्षाओं का चितवन करने वाला साधक ध्यानस्थभाव में स्थिर होने लगता है। श्वास पर उसका नियमन रात्र' नाड़ीतंत्र पर उसका अधिकार बनने लाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह जितेन्द्रियता का अभ्यासी होने लगता है। अनुप्रेक्षाध्यान में एक यह भी ध्यान रखना होता है कि मात्र बारह भावनाओं का रटन या कोरा स्मरण ही न हो परतु सर्वप्रथम मन-वचन और काया की त्रिगुप्ति साधना का अभ्यत भी हो । अर्थात व्यक्ति मन-वचन और काया से एक सूत्रता में आवद्ध हो । पहले दशों दिशाओं में भटकते मन को वासना आदि से अलिप्त बनाकर स्थिर करने के लिए प्रेक्षाध्यान या योग ध्यान का अभ्यास करना होगा । मन के स्थिर होते ही धचन में स्थिरता होगी । कहने से अधिक न कहने का मूल्य बढेगा । काया स्थिर हामी अर्थात चारित्र्य का पालन होगा । कथनी और करनी में सान्य होगा । व्यवहार में भी देखते हैं कि जिसका वचन और कम समान होता है वह सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है । वह निरर्थक बोलता नही किया करता नहीं । मन की साधना के लिये वचन मुति अर्थात मौन की सा बना होने लाती है । यह मनोवैज्ञानिक प्रयोग सिद्ध बात है कि मौन व्यक्ति में शांत चित्त से विचार करने की शक्ति बढ़ती है । मौन द्वारा संग्रहीत शक्ति मन और काया को हद करती है । कम बोलने से क्रोध आदि से बचा जा सकता है और दुश्मनों की संख्या भी नहीं बढ़ती | मन वचन से दृढ़ व्यक्ति कठिन साधना में भी स्थिर रह सकता है; कष्ट, सहिष्णुता उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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