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________________ गया । भूखां बिलखते बच्चों की रोटी छीनने में भी उसे दया नहीं आई । समाज में यह शोषक-शोषितो का वैमनस्य और वर्ग भेद बढ़ता गया । हजारों वर्ष पहले भगवान महावीर ने अपनी दिव्य और दीर्घ दृष्टि से यह निहारा था कि विश्व में वैमनस्य, विद्गोह आदि के पाप मूल का कारण यह धनहीं रहेगा। विश्व के मानव में मानवता बढेइसी उद्देश्य से उन्होंने अपरिग्रहबाद को विशेष महत्व दिया । इस अपरिग्नह के माध्यम से उन्होंने कहा कि जिनके पास आवश्यकता से अधिक द्रव्य या साधन हैं वे उन लोगों को देकर मदद रूप बनें, जिनको इनकी जीवन यापन के लिए आवश्यकता है । साथ देने वाले के मन में संतोष और प्राप्त करने वाले के मन में सद्भावना रहे । बर्ग-विलह दूर करने का इससे उत्तम उपाय क्या हो सकता था ? यह समानता संपूर्ण अहिंसक और प्रेम की नींव पर स्थापित थी। यह सत्य है कि अमीरी-गरीबी कर्मों का फल है, पर व्यवहार में पारस्परिक मदद ही द्वेषभाव, संघर्ष को दूर कर सकते हैं। भ. महावीर की इस दृष्टि को कबीर समझे तभी तो वे कहते हैं "साई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय । मैं भी भूखा न रहू साधू न भूखा जाय ।' एच' वे संग्रह खोरों को समझाते हैं "पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढे दाम । दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम । इस चर्चा से एक स्पष्टता हुई कि वस्तु की उपलब्धि हो-पर उसे त्यागने का भाव हो तभी अपरिग्रह है अन्यथा सो हर वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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