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अल्पश्रुतं......अपनी बात
आध्यात्म संबंधी इस तृतीययुष्य के द्वितीय संस्करण को आप बहुश्रुत ज्ञानी एवं धर्मप्रेमी बंधुओं के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष भाव से अनुप्राणित हो रहा हूँ।
यद्यपि मेरा जनदर्शन में विधिवत अध्ययन बिलकुल नहीं है। तथापि जिज्ञासा से प्रेरित होकर मैंने जो थोडा-सा बांचन-मनन या चिंतन किया उसी का प्रतिबिंब यह मेरा प्रस्तुतीकरण है । पिछले सात-आठ वर्षों से प्रायः सभी जैन आम्नायों द्वारा आयोजित व्याख्यानों में जाता रहा हूँ । दशलक्षण पर्व में भी पूरे दस दिन व्याख्यान देता रहा हूँ । तदुपरांत जैनधर्म दर्शन संबंधी शोध गोष्ठियों में भी भाग लेता रहा-अपने शोधपत्र प्रस्तुत करता रहा । इन सबकी तैयारी के लिए जैन दर्शन को पढ़ने का मौका मिला । यद्यपि अभी इस महासागर से चुल्लूभर भी जलपान नहीं कर पाया पर जितना भी मिला उस में उत्तरोत्तर जानकारी की जिज्ञासा ही बढ़ी । जो कुछ पढ़ा उसे जिज्ञासुओं के सन्मुख प्रस्तुत किया या लिखा । ऐसे ही व्याख्यानों और लेखों का संग्रह प्रथम पुष्प के रुप में “ मुक्ति का आनंद" (हिन्दी में) तथा '' मुक्ति नो आनंद" (गुजराती में के नाम से प्रकाशित हुआ । इसका जैनाजैन समाज में उचित आदर हुआ । यह आदर मेरे लिए प्रेरणादायी सिद्ध हुआ । इसी प्रकार जैन भाईयों को विशेषकर युवकों को जैन धर्म की सरल
और वास्तविकता से परिचय कराया जा सके, वे धर्म को सत्य और तथ्य के परिप्रेक्ष्य में देखना सीखें इसलिए प. पू. आ. मेरुप्रभसूरीजी की प्रेरणा से गुजराती में "जैनागधनानी वैज्ञानिकता" के नाम से दूसरा पुष्प प्रकाश में आया । श्वेतांबर समाज में इसका बड़ा
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