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________________ मानने वाले जैन हैं । थोडी गहराई से विचार करें तो जैनधर्म सम्प्रदाय की नहीं धर्म की व्याख्या पर खरा उतरता है । हम कह सकते हैं कि आत्माकी मुक्ति के हेतु इन्द्रिय संयम की विशाल भावना जिसमें निहित है वह स्वयं धर्म है । उसकी स्याद्वाद द्रष्टि समता, समन्वय एवं सहअस्तित्व को प्रस्तुत करती है । इस प्रकार श्वेतांबर, दिगंबर, स्थानकवासी आदि सम्प्रदाए या आम्नाय हैं पर जैनधर्म स्वयं में पूर्ण धर्म है । सत्य का दिग्दर्शन इसका स्वयं साध्य है । हम जैन क्यों ? सामान्यतः जब हम कहते हैं कि हम जैन हैं तब यहीं माना जाता है कि हम किसी जाति विशेष हैं । मुख्यतः जजैन आज वणिक या बनिया जाति का ही दूसरा नाम बन गया है । परंतु यह अज्ञानता एवं भ्रम ही है । हम सत्य और तथ्य से अनभिज्ञ होते हैं । परिणाम यह हुआ कि यह रूढिगत स्वरूप इतना दृढ हो गया है कि इस श्रेष्ठ धर्म के धारक महज बनिया बनकर रह गये । इस सत्य को समझने के लिए पहले यह स्पष्ट जान लेना होगा कि जैन जाति नहीं है अपितु धर्म है । केवली प्रणीत धर्म के सिद्धांतो को मानने वाला एवं आचरण करने वाला जौन है । जैनों को 'श्रावक कहा गया है | श्रावक की व्याख्या इस प्रकार की गई है, कि जो विबेकवान, विरक्वचित एव अणुव्रत का धारक है - वह श्रावक हैं जो गृहस्थजीवन में व्रत नियम का पालन करता है, जो पचपरमेष्ठी की भक्ति करते हुए दान, पूजन के साथ मूलं गुणों को धारण करता हुआ क्रमशः रागादिक भावों को दूर कर इंद्रिय संयम करता हैसाथ ही मुनिपद धारण करने की भावना भाते हुए स्वयं मुनि बनने के प्रयत्न करता है । देव- -शास्त्र एवं गुरू में श्रद्धा है जो जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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