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________________ स्वाध्याय के प्रारंभ में ही मैंने 'स्व' शब्द की व्याख्या की है। 'स्व' आत्मा का ही पर्यायवाची शब्द है । हम अनेक बार स्वतंत्र या स्वाधीन शब्द का प्रयोग करते हैं । इन प्रयोगों के गर्भ में हमारी भावना यही रहती है कि हम अपने ही तंत्र में रहें । हमारे व्यवहार से अन्य का अहित न हो। हम अपनी इन्द्रियों या वृतियों को ऐसा न बनने दें जो दूसरों के लिए कष्टकर है।। यहाँ स्वाधीन भी 'अपने में अधीन' या स्वयं पर स्वयं के संयम का परिचायक शब्द है । हम तभी स्वाधीन हैं जब अपनी तरह दूसरों को भी जीने का अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करें । उनमें रुकावट न बनें । हमारा यही संयम भाव स्व-पर को आन्नद देनेवाला तत्व है । इस दृष्टि से ये स्वाध्याय, स्वतंत्रता स्वाधीनता आदि शब्द व्यक्ति को भौतिक और आदिभौतिक या व्यवहार और निश्चय में उन्नत बनाते हैं। स्वाध्याय को आज के युगीन संदर्भ में देखें तो आज का शिक्षण जिसमें स्वाध्याय की निरंतर न्यूनता होती जा रही है । आज का विद्यार्थी और युवक यदि पढ़ता भी है तो ऐसे साहित्य को जो कामोत्तेजक, तिलस्म, जासूसी आदि भौतिकता की अग्नि को बढ़ावा देनेवाला है। अरे ! आज का विद्यार्थी अपने नियत पाठयक्रम से तो जैसे विमुख ही बनता जा रहा है । उसने ऐसा गलत पढना शुरू किया है जिससे उसकी भौतिक भूख बढी । संयम टूटा । अनास्था जन्मी । परिणामतः उसमें निराशा, कुंठा, बैचैनी और कुकृत्य या दुष्कृत्य के भाव बढ़ रहे हैं । वह दिशा शून्य बन रहा हैं। आग से आग को बुझाने के प्रयास में वह जल ही रहा है । मानसिक विकृतियां और बीमारियाँ इनके कुपरिणाम हैं । सच तो यह है कि जिस विज्ञान ने समस्त शोधकार्य शास्त्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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