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________________ १४१ मनन करना, चिंतन करना या बिचारना ही स्वाध्याय है । मैं स्वयं (आत्मा) के विषय में जान सकूँ इससे बड़ा ज्ञान और क्या हो सकता है ! आज के युग की विडंबना ते अह है कि आत्मा तो दूर हम व्यवहार में भी अपने विषय में कम ही जानते हैं। हमारी पर छिन्द्रान्वेपी दृष्टि दूसरों का ही या यों कहें दूसरों के दोष देखने में ही अपनी सिद्धि मानती है। इससे राग-द्वेष ही जन्मते और पनपते हैं । इसके स्थान पर यह स्वाध्याय हमें सिखाता है कि मैं सदैव यो विचारूँ कि मैं कौन हूँ ? मेरा मूल स्वरुप व स्वभाव क्या है ? 'सर्वार्थसिद्धि' एवं 'चारित्र्यसार' ग्रंथो में कहा है कि आत्मा का हित करनेवाला अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। व्यावहारिक दृष्टि से आगमग्रंथों को वांचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा एवम् धर्मकथा कहना व सुनना ही स्वाध्याय है । इससे भी आगे पढ़ने के पश्चात उसको समझना और जीवन में उतारना उससे भी उत्तम स्वाध्याय है। उत्तम चरित्रों का पठन उत्तम गुणो का विकास करता है, धर्म के प्रति श्रद्धान्वित बनाता है | सत शास्त्रो के पठन से मिथ्यादर्शन - मिथ्या ज्ञान का अस्त होता है और सम्यग्ज्ञान का उदय होकर उत्तम चारित्र्य की ओर उन्मुख करता है । जैनदर्शन तो कहता है कि उत्तम पंचपरमेष्ठी के ध्यान में लीन, उनके गुणों का स्मरण करने वाला उन्हीं जैसा अमर पद प्राप्त करता है । भगवती आराधना में उल्लेख है कि सर्वज्ञ देव द्वारा कथित बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय उत्तम तप है । ज्ञानी साधक अन्तर्मुहुर्त में कर्मों का क्षय कर सकता है । इतना ही नहीं अनेक प्रकार के व्रतोपवास करने वाले ज्ञानरहित व्यक्ति की अपेक्षा स्वाध्याय-रत सम्यष्टि अपने परिणामो को विशेष शुद्ध बना सकता है । धवला में कहा है कि जिन्होंने सिद्धांतो का उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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