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________________ ही नहीं निकल पाता । विश्व के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो सम्प्रदायों के जनून ने भयंकर रक्तपात और हिंसा कराई है । सम्प्रदाय की दृष्टि में धर्म का मंथन करने वाला शुन्य ही प्राप्त करता है । पानी को मथकर घी प्राप्त करने का यह क्षुद्र प्रयास हैं । सम्प्रदाय का जन्म ही द्वेष से होता है । प्राचीन युगमें इस देश में वैदिक एवं श्रमण संस्कृतियो में भी धर्म साहित्यकता का प्रतीक था। दोनों के साध्य समान थे। परंतु कालांतर में इन शब्दों का स्थान जैन एवं हिंन्दूधर्म ने ले लिया । कुछ बुद्धिवादियों ने अपने अपने ढग से व्याख्याऐ की या मूल व्याख्या को तोड़ा-मरोड़ा । धर्म की व्याख्या में क्रियाकांड या भौतिक सुखों का मिश्रण कर लोगों को भ्रमित किया और नये-नये पथ प्रस्थापित करते गये । 'मैं' की सच्चाई का एकांत कथन करने लगे । अधिपत्य की भाषा ने जन्म लिया । संघर्ष बढे. धर्म द्वटा, सच्चे धर्म या सम्प्रदाय की काई का आवरण छाने लगा। चमत्कारों की महत्ता बढ़ी । क्रियाकांड मुख्य हो गये । आत्मा बिना के शरीर की पूजा होने लगी | धर्म के नाम पर व्यभिचार फूलने लगा। चार्कक जैसे भी इसी कारण आचार्यत्व पा सके । __यदि प्रत्येक सम्प्रदाय के मूल में उसके दर्शनपक्ष की समीक्षा की जाये तो स्पष्ट होता है कि अंततोगत्वा सभीने मानव की मुक्ति, आत्मोद्धार एव' मनोविकारों को त्यागने की बात कही है। (चर्चा की त्वचा) क्रियाकांड तो मात्र एक पहचान के साधन होते हैं। भारतवर्ष का दुर्भाग्य ही रहा है कि इसका जितना अहित इन माम्प्रदायिक संघर्षों ने किया उतना किसी भाकांता ने भी नहीं किंया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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