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________________ से गुजर रहा है । मानसिक त्रास से त्रस्त है । कमर कर्मों से बँधा यह मनुष्य इन कर्मों से संवर अर्थात् रोकने के लिए तीर्थकर भगवन्ता के गुनगान करता हुआ-उसी पथ पर चलने के संकल्प करता है । वह यही गाता है-हे भगवान ! जिम प्रकार संमार की मोह-माया त्यागकर, उग्र तपस्या द्वारा कर्मों का क्षय करके आप मुक्त बने हैं उसी प्रकार मैं भी मुक्त बनकर आ की अवस्था को प्राप्त करना चाहता हूँ । अन्धकार का हर्ता दीपक जैसे अन्धकार में मार्ग प्राशस्त करता है, उसी प्रकार सत्पथ से भटके लोगों को आपकी भक्ति प्रकाश प्रदान करेगी । आराधक भगवान से प्रार्थना करता है कि हे नाथ मैं स्वयं प्रकाशित बनें और दूसरों का भी मार्ग प्राशस्त करता रहूँ। जिस प्रकार ज्योति जलकर अन्य को प्रकाशित करती है-उसी प्रकार में भी स्वयं कष्ट उठाकर अन्य दुखी प्राणियों के कष्ट हरता रहूँ । आरती में गीत-संगीत का प्राधान्य तन्मय बनाता है । संगीत की यह शक्ति है कि वह मनुष्य में आनंद और उत्साह को प्रबल बनाता है । जैनधर्म में यह मंगलदीप सर्वमंगल का प्रतीक है । जनसंस्कृति की सबसे बड़ी विशिष्टता ही यह है कि उसमें पूजा विधान, आरती आदि सभी में अपने कल्याणा मात्र की भावना नहीं है अपितु विश्वसुस्व या प्राणीमात्र के सुख की कामना निहत है । संसार के सुखों से ऊपर उठकर हम आत्म सुख तक अग्रसर हों यही हमारी भावना रहती है " श्री जिनवर की आसिका लीजे शीश चढ़ाय । __ भव भव के पातक! टरें, दुख दूर हो जाये" || शांतिपाठ : जैन जा पद्धति में पूजा का प्रारंभ यदि पच- परमेष्टी के ' आह्वान से होता हैं तो उसकी पूर्णाहूति शांतिपाठ से होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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