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________________ १२९ कि आचार्य, पण्डितों ने द्रव्य पूजन को ही महत्त्व दिया होगा पर समयाभाव शक्ति की मर्यादा, स्थान आदि को ध्यान में रखकर भाव पूजा को भी स्वीकृति दी होगी । कम से कम पूजा नहीं करने से तो किसी माध्यम से पूजा की जाये यह मूल-भाव रहा होगा । 1 करता 4 द्रव्यपुजन जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप-धूप एवं फलों को अर्पित करके की जाती है । यहां प्रत्येक द्रव्य को मात्र भौतिक पदार्थ समझने पर इसके महत्व से परिचित नहीं हुआ जा सकेगा । प्रत्येक पदार्थ प्रतीक के रूप में ही स्वीकार किए गये हैं । ये हमारी मनोभावना के प्रतीक हैं । प्रत्येक द्रव्य के साथ भक्त भगवान के गुण कथन तो ही है परन्तु उसका उद्देश्य उस क्रय के समर्पण के साथ कर्मों का क्षय या समर्पण भी होता है । तिलोयपण्णति' में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा है कि देव भगवान की पूजा झारी, कलश, दर्पण, छत्र एवम् वर आदि द्रव्यें। से तथा स्फटिक मणिमय उत्तम जलधारा से, सुगन्धित केसर, मलयानिल चन्दन और कुमकुम से, मोतीं से अखण्ड अक्षत से, जिनका रंग और सुगन्ध सर्वत्र व्याप्त है ऐसे पुष्पों से अमृत तुल्य उत्तम व्यंजनों से, सुगन्धित धूप युक्त रत्नमयी दीपक से और उत्तम फलें। से पूजन करते हैं । इस पूजन सामग्री के साथ पृथकपृथक श्लोकों द्वारा भक्त यही भावना भाता है कि हे जिनेन्द्र भगवान ! उत्तम जलधारा से मेरे पाप रूपी मैल धुल जायें । मेरी आत्मा निर्मल बने | यह निर्मलता ही मनुष्य की सरलवृत्ति का परिचायक है । चन्दन के लेप से मैं संसार के ताप से शांति का अनुभव करूँ - अर्थात् भौतिक लालसाओं से उद्विग्न मन को निस्पृहता की शांति प्राप्त हो । ' अक्षत' मुझे जन्म-मरण के आवागमन से निकालकर अक्षय अनन्त सिद्ध पद की ओर उन्मुख करके प्रस्थापित करें । चन्दन ' का भाव यह प्रेरणा देता है कि ससार के त्रिताप, 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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