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________________ १२२ के ज्ञाता हैं । निरंतर उद्यत हैं- वे आचार्य ग्यारह अंग के धारी, भगवती पारंगत, शुद्ध और सौम्य हैं । अंतरंग और वहिरंग परिग्रहों से रहित हैं । आकाश की भाँति निर्लेप हैं- वे आचार्य परमेष्ठी होते हैं । जो ज्ञान में एव प्रायश्चित देने में कुशल हैं। आगम आचरण और व्रतों की रक्षा में परमेष्ठी हैं जो चौदह विद्याओं में आचसंग के धारी और दोष रहित हैं- वे आचार्य हैं आराधना में छत्तीस गुणों का उल्लेख किया है तात्पर्य कि ज्ञान, तपस्या एव वीतरागत' में जो दृढ़ हैं उनको नमस्कार करते हैं । 'में। उवज्झायाणं' में इस उपाध्याय को नमस्कार करते हैं । भी वे ये उपाध्याय मुनि हैं जिन्होंने कर्मदहन के लिए उग्र तपस्या की है । ऐसे मुनि जिनवर कथित रत्नमय धर्म के उपदेशक होते हैं । सरल भाषा में कहें तो वे अध्यापक मुनि हैं जो जिनवाणी का उपदेश करते हैं । नवदीक्षित मुनियों को शास्त्राभ्यास कराते हैं । सच्चे ज्ञान से मुमुक्षुओं को सन्मार्ग का दर्शन कराते हैं। जिनदेवने जिन बारह अंग और चौदह पूर्वो का स्वाध्याय कहा है-उस स्वाध्याय की ओर उन्मुख करते हैं । इस कारण वे उपाध्याय की श्रेणी में हैं । ऐसे उपाध्याय शास्त्र ज्ञाता मुनिओं के पास भव्य ( जिज्ञासु ) जन विनयपूर्वक श्रुत का अभ्यास करते हैं । ये मुनिगण मात्र ग्रह और अनुग्रह गुणों के अलावा आचार्य के समस्त गुणों के धारक होते हैं । लोगों के मन में अद्भुत शंकाओं का निवारण करते हैं । ये आगमों के ज्ञाता - व्याख्याता होते हैं । उत्तम वक्ता. होने से जन-जन को जिनवाणी से प्लावित करते हैं । पंचम चरन ' णमो लोए सव्व साहूणं' में सभी साधुओं की वंदना की गई है । वैसे आचार्य - उपाध्याय प्रथम तो साधू ही हैं । वे ही इस साधुता के गुणों का उत्तरोत्तर विकास करके उच्च श्रेणी तक पहुँचते हैं । साधु का अर्थ ही है कि जिसने साधना की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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