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________________ जिसकी रुचि श्रेयोमार्ग में लग गई है उसकी लेश्या भावना शुक्ल या पवित्र हो जाते हैं | अहर्निश करुगा के भाव उस पर रहते हैं । ऐसा ग्यक्ति जनकल्याण के साथ आत्मकल्याण की ओर उन्मुख रहता है । वह नीचे स्वतः टपके हुए फला का ही प्राप्तकर आनन्द का अनुभव करता है । जो संसार से अलिप्त, अनंतसुखी एवं अयोग केवली सिद्ध जीव हैं वे शुभा-शुभ भाव से युक्त होने के कारण लेश्या रहित होते हैं । मनोभावों कषायभावना की तीव्रता या मंदता की दृष्टि से इनके छः प्रकार किंए गये हैं । ये तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर एव मंदतम होती हैं । ये लेश्या बंध का कारणभाव हैं। जो संसार में भट कनेवाली हैं । शास्त्रों के विधानानुसार प्रथम तीन लेश्या वाले जीव एकेन्द्रिय जीव से असंयत सम्यकदृष्टि गुण स्थान तक होते हैं । जब कि शुभ लेझ्या वाले जीव संयोगी केवली गुणस्थान के पश्चात् जीव लेश्या-रहित होता है । वर्तमान युग की नवीन खोजों द्वारा मनोभाव या मनोविकार मनुष्य के चहरे पर विकृति के भाव अंकित करते हैं इसे फोटोग्राफी द्वारा भी अंकित करने का प्रयास किया है । प्रत्येक व्यक्ति के इर्द गिर्द एक प्रभामंडल रहता है । इसका रंग व्यक्ति की भावनानुसार ही बनता रहता है । इसे हम मनोभावों की प्रतिच्छाया कह सकते हैं । ज्योतिष शास्त्र में सामुद्रिक शास्त्र भी गवाही देता है । आज के व्यक्तिका शब्द यही संकेत करता है कि व्यक्ति किसी मने भाव में जी रहा है । हम देखते हैं कि दुष्ट व्यक्ति का चेहरा अनायास हमें उसके प्रति शंकित या घृणा से भर देता है जबकि साजन पुरुष के प्रति हम में सद्भावना जागती है । सचमुच लेश्या जैन दर्शन की महत्वपूर्ण चर्चा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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