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________________ हुए परिपह सहन करने की शक्ति बढ़ानी चाहिए । सराग चरित्र (व्यवहार) से वी111 (निश्चय) की और उन्मुख होना चाहिए | चारित्र धारी का क्रमशः गग के संस्कार नष्ट करके वीतराग भावो की वृद्धि की निरंतर खेवना करनी चाहिए | सरल भोपा में कहें तो चरित्र धारी अशुभ कर्मों को काटने का प्रयास करता ही है पर शुभ भाव की आकांक्षा भी रखता है, जबकि वीतरागी चारित्र धारी अष्ट कर्मों को जलाकर निर्भार होकर मुक्ति की कामना करता है। चारित्र ही मोक्षमार्ग की अंतिम यात्रा हैं । यही धर्म का सार है अत-'चारित्र खलु धम्मो' कहा गया है । इसी से ही मोक्ष मिलेगा । साधक का इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि सम्यकत्व के बिना किया हुआ तप व्यर्थ होगा । अतः सत्य का सच्चे मार्ग को जानकर आत्मकल्याणार्थ ही तप करना सार्थक है । ज्ञानी होना सरल है-पर चारित्रवारी होना कठिन है । विना चारित्र धारण किए किसी को मुक्ति नहीं मिली । तीर्थेकर के जिव को भी तीर्थोकरत्व तो चरित्रापालन से ही प्राप्त हो सका। ___हम हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील एवं परिग्रह का त्याग करके इसका प्रारंभ करें । प्रत्येक कार्य में सावधानी वर्तों कि कहीं हिंसादि तो नहीं होती । हमारे वचन क्रिया में साम्य हो । इन प्राथमिक चारित्र पालन से प्रारंभ कर शास्त्राभ्यास करते हुए संयम धारण कर वीतराग मुद्रा में स्थित हों। अपने श्वास को रोकना सीखें । दृष्टि नाशापर रखना सीखें । अपने शरीर के स्थित ज्ञान चक्रों को जाग्रत करें । प्रेक्षा ध्यान से दूषित ध्यान को दूर करें । इन तीनों का पालन ही कर्मों को नष्ट करता है एवं मोक्ष मार्ग पर आरुढ़ करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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