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________________ १०८ अधिकरण, स्थिति, विधान, सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव एवं अल्प बहुख । (तस्वार्थ सूत्र प्र. अ. ७८) सम्यग्ज्ञान के पांच भेद किए गये हैं - १. मतिज्ञन २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मन: पर्यायज्ञान ५. केवलज्ञान । (इन पांच ज्ञान भेदों पर पृथक से पूरा विवेचन किया जा सकता है) यहाँ सिर्फ इतना ही संक्षिप्त में जानें कि- 'इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह मतिज्ञान है । मतिशन से जाने हुए पदार्थ का अवलंबन लेकर मतिज्ञान पुर्वक जो अन्त पदार्थ का ज्ञान होता हैं वह श्रुतज्ञान है । द्रव्य-क्षेत्र-काल और भ व की मर्यादाके लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के विनाजो रुपी पदार्थ का ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । द्रव्य क्षेत्र काल और भ व की मर्याद लिये हुए जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे के मन की अवस्थाओं का ज्ञान होता है वह मनःपर्याय ज्ञान है तथा जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगवत जानता है वह केवल ज्ञान है ।' (तत्वार्थ सूत्र-फू. च. सिद्धांत शास्त्री पृ. १९) सम्यग्ज्ञान के विविध भेद-उपमेद आदि के अध्ययन से इतना स्पष्ट होता है कि आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानना ही ज्ञान है । भेद विज्ञान की समझ प्राप्त होना एठां तदनुसार वस्तु को और आगे बढ कर उपयोगी-अनुपयोगी, ग्राह्य, त्याज्य एव' देय-उपादेय के भेद को समझना ही सम्यग्ज्ञान है । ज्ञानावरण कर्म के क्षय की मात्रा में इसकी प्रप्ति और वृद्धि होती है । सम्यक्चारित्र्य- किसी भी वस्तु को जानने और समझने के पश्चात उसपर अमल करना ही पुर्णता है । अर्थात तत्वों का श्रद्धान उनका ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात चान्यि धारण करने पर ही मौक्ष सुख प्राप्त हो सकता है । दर्शन और ज्ञान का प्रायोगिक पक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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